- अनिल प्रकाश
उत्तर बिहार के अनेक युवा किसानों ने अपने खेतों में सोना उपजाया। उनके गेहूं की बालियां पहले से बड़ी थीं । अमूमन एक बाली में 42 से 52 दाने रहते हैं, इस बार 72 से 82 दाने थे। दाने भी काफी पुष्ट। एक एकड़ खेत में 26 क्विंटल 40 किलोग्राम तक गेहूं की उपज हुई। मकई तथा अन्य फसलों में भी इसी प्रकार की उपज हुई। इन किसानों ने रासायनिक उर्वरकों और जहरीले कीटनाशकों का प्रयोग बंद करके जैविक कृषि की शुरुआत की है। केंचुआ खाद (वर्मी कम्पोस्ट) नीम की पत्तियों और गोमूत्र के संयोग से बने कीटनाशक के प्रयोग का ही कमाल है कि दो वर्षों के अंदर ही उनके खेतों की उर्वरा शक्ति वापस लौट आयी। जब रासायनिक खादों का प्रयोग शुरू हुआ था, तो उपज बढ़ी थी। लेकिन धीरे-धीरे उर्वरा शक्ति क्षीण होती गई और खेती का खर्च बढ़ता चला गया। जैविक कृषि के द्वारा कम सिंचाई में ही अच्छी फसल होने लगी है क्योंकि अब मिट्टी में वर्षा जल को सोख कर टिकाये रखने की क्षमता काफी बढ़ गई है। जिन खेतों में जैविक खादों के सहारे सब्जी उगाई जा रही है वहां की सब्जियां ज्यादा स्वादिष्ट और ज्यादा पौष्टिक हैं। मुजफ्फरपुर लीची के लिए प्रसिद्ध है। लीची के जिन बागानों में जैविक खाद और जैविक कीटनाशक का प्रयोग हो रहा है वहां की लीची का रंग, आकार और स्वाद बेहतर है। यही कारण है कि जैविक खेती के द्वारा उपजाये गये अनाज, फल और सब्जियों के भाव भी ज्यादा मिलते हैं।
रासायनिक कृषि से फसल चक्र भी बिगड़ गया है। एक ही प्रकार की फसल बार-बार लगाने से मिट्टी की उर्वरा शक्ति नष्ट हो जाती है। दाल और अनाज वाली फसलों को अदल-बदल कर बोने या मिश्रित रूप से बोने पर खेत उर्वर बने रहते हैं। जैविक कृषि करनेवालों ने इसे फिर से अपनाया है। रासायनिक कृषि से पौधे के लिए आवश्यक सूक्ष्म पोषक तत्व भी समाप्त होने लगे हैं। मिट्टी की जांच का झंझट सामने आता है और सूक्ष्म पोषक तत्वों को महंगे दाम पर खरीदकर खेतों में छिड़कना पड़ता है। जबकि केंचुआ खाद में सभी पोषक तत्व पर्याप्त मात्रा में होते हैं। एसिनिया फटिडा केंचुआ द्वारा निर्मित जैविक खाद में नाइट्रोजन, फॉस्फेट और पोटैशियम के साथ-साथ पर्याप्त मात्रा में कैल्शियम, मैग्नीशियम, कोबाल्ट, मोलिब्डेनम, बोरोन, सल्फर, लोहा, तांबा, जस्ता, मैंगनीज, जिबरैलीन, साइटोकाइनीन तथा ऑक्सीजन पाये जाते हैं। इसके अलावा इसमें बहुत सारे बायोऐक्टिव कम्पाउंड, विटामिन एवं एमिनोएसिड होते हैं।
बिहार के हजारों किसान परिवार मधुमक्खी पालन और शहद उत्पादन करके खुशहाल हुए हैं । जिन फसलों के आसपास मधुमक्खी के बक्से रखे जाते हैं वहां उपज में बीस प्रतिशत की वृद्धि हो जाती है, क्योंकि मधुमक्खियां फसलों के परागण में मददगार होती हैं । लेकिन जहरीले रासायनिक कीटनाशकों के छिड़काव के कारण कापफी मधुमक्खियां मर जाती हैं। उनके साथ तितली, केंचुए आदि खेती के मित्रा जीव.जन्तु भी मर जाते हैं। नुकसानदेह कीटों को खा जाने वाले मेढ़कों के जीवन पर भी आफत है। कौए, गौरैये, कोयल तथा अन्य चिड़ियों की चहचहाहट तथा कबूतरों की गूंटर-गूं भी कम सुनाई पड़ती है। चील भी कम दिखाई देते हैं और गिद्ध तो दिखाई ही नहीं देते। लेकिन जिन गांवों में जैविक कृषि होने लगी है वहां मित्र जीव-जन्तुओं की सुरसुराहट, चिड़ियों की चहचहाहट और हलचल का मधुर संगीत फिर से सुनाई देने लगा है।
मध्यकाल से ही सरइसा परगना (अब का तिरहुत) के एक बड़े इलाके में किसान नगदी फसल के रूप में तम्बाकू की खेती करते आ रहे हैं। किसान जानते हैं कि वे तम्बाकू के रूप में जहर उपजा रहे हैं। लेकिन पेट की खातिर इसे करना पड़ता है। पर तम्बाकू की खेती अब उतनी फायदेमंद नहीं रही। ऐसे में अनेक किसानों ने पुदीना, लेमन ग्रास, अश्वगंध, सफेद मूसलीए शतावर, आंवला, हर्रे, बहेड़ा, जस्टीसिया जैसे सैकड़ों औषधीय पौधों की खेती शुरू की है और उन्हें अच्छा मुनाफा भी मिलने लगा है। देशी और अंतर्राष्ट्रीय बाजार में इनकी बड़ी मांग है।
आठ साल पूर्व कम्मन छपड़ा गांव के पफुदेनी पंडितए गोविंदपुर के श्रीकांत कुशवाहा और मानिकपुर के सुबोध तिवारी ने जब केंचुआ खाद और जैविक कीटनाशक तथा औषधीये पौधे का प्रचार-प्रसार शुरू किया था, तो लोग इन्हें पागल समझते थे। उनके घरवाले भी रासायनिक कृषि को छोड़ जैविक कृषि अपनाने के लिए तैयार नहीं थे । आज ये किसानों के प्रेरणास्रोत और मार्गदर्शक बन गए हैं। दरभंगा, मधुबनी, समस्तीपुर, मुंगेर, भागलपुर हर जगह जैविक कृषि का प्रसार होने लगा है। इससे खेती की लागत भी घट रही है और रोजगार के नए अवसर भी पैदा होने लगे हैं। जैविक कृषक मंडलों का गठन होने लगा है और जैविक कृषक पंचायत बुलाकर जैविक कृषि अपनाने का फैसला भी लिया जा रहा है । वीरेन्द्र नरेश जैसे कई लोग उत्साह से इस काम में लगे और सकरी सरैया गांव में आयोजित एक कृषक पंचायत में फुदेनी पंडित और श्रीकांत कुशवाहा को सम्मानित किया गया।
कुछ वर्ष पूर्व असम से जर्मनी तथा अन्य यूरोपीय देशों को निर्यात की गई चाय वापस लौटा दी गई थी। उस चाय में जहरीले कीटनाशकों तथा रासायनिक पफर्टिलाइजर के अंश पाए गए थेए जिन्हें मानव स्वास्थ्य के लिए हानिकारक माना जाता है। नासिक से निर्यात किए गए अंगूर को भी इसी कारण लौटाया गया था। अमीर देश अपने यहां आयात की जाने वाली सब्जियों, फलों, अनाज तथा दूध आदि की जांच के बाद उन्हें निरापद पाये जाने पर ही लेते हैं। इसलिए चाय बागान वाले अब केंचुआ खाद और जैविक कीटनाशकों का प्रयोग करने लगे हैं । जैविक खाद की रही मांग काफी बढ़ रही है और उत्पादकों को अच्छी आमदनी भी हो रही है। निर्यात किए जाने वाले पफलोंए सब्जियों आदि के उत्पादन के लिए भी इनकी मांग बढ़ी है। सरकार कुछ सब्सिडी भी देने लगी है । लेकिन सब्सिडी का ज्यादा पैसा या तो बिचौलिए मार लेते हैं या वापस लौट जाता है। कुछ अपवादों को छोड़ दें तो ज्यादातर बैंक कर्मी उदासीन या नकारात्मक रवैया ही रखते हैं। सरकार भी सिर्फ निर्यात वाले खाद्य पदार्थों के जैविक उत्पादन की चिंता करती है। खेती में जहरीले रसायनों के प्रयोग से पंजाब में कैंसर तथा अन्य घातक बीमारियों का प्रसार हुआ है। क्या हम रासायनिक उर्वरकों तथा जहरीले कीटनाशकों के लिए दी जानेवाली भारी सब्सिडी को समाप्त करके उस पैसे को जैविक कृषि में लगे कृषकों की मदद में खर्च नहीं कर सकते?
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