गुरुवार, 1 अप्रैल 2021

सोना उगलती जैविक खेती

  • अनिल प्रकाश 

उत्तर बिहार के अनेक युवा किसानों ने अपने खेतों में सोना उपजाया। उनके गेहूं की बालियां पहले से बड़ी थीं । अमूमन एक बाली में 42 से 52 दाने रहते हैं, इस बार 72 से 82 दाने थे। दाने भी काफी पुष्ट। एक एकड़ खेत में 26 क्विंटल 40 किलोग्राम तक गेहूं की उपज हुई। मकई तथा अन्य फसलों में भी इसी प्रकार की उपज हुई। इन किसानों ने रासायनिक उर्वरकों और जहरीले कीटनाशकों का प्रयोग बंद करके जैविक कृषि की शुरुआत की है। केंचुआ खाद (वर्मी कम्पोस्ट) नीम की पत्तियों और गोमूत्र के संयोग से बने कीटनाशक के प्रयोग का ही कमाल है कि दो वर्षों के अंदर ही उनके खेतों की उर्वरा शक्ति वापस लौट आयी। जब रासायनिक खादों का प्रयोग शुरू हुआ था, तो उपज बढ़ी थी। लेकिन धीरे-धीरे उर्वरा शक्ति क्षीण होती गई और खेती का खर्च बढ़ता चला गया। जैविक कृषि के द्वारा कम सिंचाई में ही अच्छी फसल होने लगी है क्योंकि अब मिट्टी में वर्षा जल को सोख कर टिकाये रखने की क्षमता काफी बढ़ गई है। जिन खेतों में जैविक खादों के सहारे सब्जी उगाई जा रही है वहां की सब्जियां ज्यादा स्वादिष्ट और ज्यादा पौष्टिक हैं। मुजफ्फरपुर लीची के लिए प्रसिद्ध है। लीची के जिन बागानों में जैविक खाद और जैविक कीटनाशक का प्रयोग हो रहा है वहां की लीची का रंग, आकार और स्वाद बेहतर है। यही कारण है कि जैविक खेती के द्वारा उपजाये गये अनाज, फल और सब्जियों के भाव भी ज्यादा मिलते हैं। 

रासायनिक कृषि से फसल चक्र भी बिगड़ गया है। एक ही प्रकार की फसल बार-बार लगाने से मिट्टी की उर्वरा शक्ति नष्ट हो जाती है। दाल और अनाज वाली फसलों को अदल-बदल कर बोने या मिश्रित रूप से बोने पर खेत उर्वर बने रहते हैं। जैविक कृषि करनेवालों ने इसे फिर से अपनाया है। रासायनिक कृषि से पौधे के लिए आवश्यक सूक्ष्म पोषक तत्व भी समाप्त होने लगे हैं। मिट्टी की जांच का झंझट सामने आता है और सूक्ष्म पोषक तत्वों को महंगे दाम पर खरीदकर खेतों में छिड़कना पड़ता है। जबकि केंचुआ खाद में सभी पोषक तत्व पर्याप्त मात्रा में होते हैं। एसिनिया फटिडा केंचुआ द्वारा निर्मित जैविक खाद में नाइट्रोजन, फॉस्फेट और पोटैशियम के साथ-साथ पर्याप्त मात्रा में कैल्शियम, मैग्नीशियम, कोबाल्ट, मोलिब्डेनम, बोरोन, सल्फर, लोहा, तांबा, जस्ता, मैंगनीज, जिबरैलीन, साइटोकाइनीन तथा ऑक्सीजन पाये जाते हैं। इसके अलावा इसमें बहुत सारे बायोऐक्टिव कम्पाउंड, विटामिन एवं एमिनोएसिड होते हैं। 

बिहार के हजारों किसान परिवार मधुमक्खी पालन और शहद उत्पादन करके खुशहाल हुए हैं । जिन फसलों के आसपास मधुमक्खी के बक्से रखे जाते हैं वहां उपज में बीस प्रतिशत की वृद्धि हो जाती है, क्योंकि मधुमक्खियां फसलों के परागण में मददगार होती हैं । लेकिन जहरीले रासायनिक कीटनाशकों के छिड़काव के कारण कापफी मधुमक्खियां मर जाती हैं। उनके साथ तितली, केंचुए आदि खेती के मित्रा जीव.जन्तु भी मर जाते हैं। नुकसानदेह कीटों को खा जाने वाले मेढ़कों के जीवन पर भी आफत है। कौए, गौरैये, कोयल तथा अन्य चिड़ियों की चहचहाहट तथा कबूतरों की गूंटर-गूं भी कम सुनाई पड़ती है। चील भी कम दिखाई देते हैं और गिद्ध तो दिखाई ही नहीं देते। लेकिन जिन गांवों में जैविक कृषि होने लगी है वहां मित्र जीव-जन्तुओं की सुरसुराहट, चिड़ियों की चहचहाहट और हलचल का मधुर संगीत फिर से सुनाई देने लगा है। 

मध्यकाल से ही सरइसा परगना (अब का तिरहुत) के एक बड़े इलाके में किसान नगदी फसल के रूप में तम्बाकू की खेती करते आ रहे हैं। किसान जानते हैं कि वे तम्बाकू के रूप में जहर उपजा रहे हैं। लेकिन पेट की खातिर इसे करना पड़ता है। पर तम्बाकू की खेती अब उतनी फायदेमंद नहीं रही। ऐसे में अनेक किसानों ने पुदीना, लेमन ग्रास, अश्वगंध, सफेद मूसलीए शतावर, आंवला, हर्रे, बहेड़ा, जस्टीसिया जैसे सैकड़ों औषधीय पौधों की खेती शुरू की है और उन्हें अच्छा मुनाफा भी मिलने लगा है। देशी और अंतर्राष्ट्रीय बाजार में इनकी बड़ी मांग है। 

आठ साल पूर्व कम्मन छपड़ा गांव के पफुदेनी पंडितए गोविंदपुर के श्रीकांत कुशवाहा और मानिकपुर के सुबोध तिवारी ने जब केंचुआ खाद और जैविक कीटनाशक तथा औषधीये पौधे का प्रचार-प्रसार शुरू किया था, तो लोग इन्हें पागल समझते थे। उनके घरवाले भी रासायनिक कृषि को छोड़ जैविक कृषि अपनाने के लिए तैयार नहीं थे । आज ये किसानों के प्रेरणास्रोत और मार्गदर्शक बन गए हैं। दरभंगा, मधुबनी, समस्तीपुर, मुंगेर, भागलपुर हर जगह जैविक कृषि का प्रसार होने लगा है। इससे खेती की लागत भी घट रही है और रोजगार के नए अवसर भी पैदा होने लगे हैं। जैविक कृषक मंडलों का गठन होने लगा है और जैविक कृषक पंचायत बुलाकर जैविक कृषि अपनाने का फैसला भी लिया जा रहा है । वीरेन्द्र नरेश जैसे कई लोग उत्साह से इस काम में लगे और सकरी सरैया गांव में आयोजित एक कृषक पंचायत में फुदेनी पंडित और श्रीकांत कुशवाहा को सम्मानित किया गया।

कुछ वर्ष पूर्व असम से जर्मनी तथा अन्य यूरोपीय देशों को निर्यात की गई चाय वापस लौटा दी गई थी। उस चाय में जहरीले कीटनाशकों तथा रासायनिक पफर्टिलाइजर के अंश पाए गए थेए जिन्हें मानव स्वास्थ्य के लिए हानिकारक माना जाता है। नासिक से निर्यात किए गए अंगूर को भी इसी कारण लौटाया गया था। अमीर देश अपने यहां आयात की जाने वाली सब्जियों, फलों, अनाज तथा दूध आदि की जांच के बाद उन्हें निरापद पाये जाने पर ही लेते हैं। इसलिए चाय बागान वाले अब केंचुआ खाद और जैविक कीटनाशकों का प्रयोग करने लगे हैं । जैविक खाद की रही मांग काफी बढ़ रही है और उत्पादकों को अच्छी आमदनी भी हो रही है। निर्यात किए जाने वाले पफलोंए सब्जियों आदि के उत्पादन के लिए भी इनकी मांग बढ़ी है। सरकार कुछ सब्सिडी भी देने लगी है । लेकिन सब्सिडी का ज्यादा पैसा या तो बिचौलिए मार लेते हैं या वापस लौट जाता है। कुछ अपवादों को छोड़ दें तो ज्यादातर बैंक कर्मी उदासीन या नकारात्मक रवैया ही रखते हैं। सरकार भी सिर्फ निर्यात वाले खाद्य पदार्थों के जैविक उत्पादन की चिंता करती है। खेती में जहरीले रसायनों के प्रयोग से पंजाब में कैंसर तथा अन्य घातक बीमारियों का प्रसार हुआ है। क्या हम रासायनिक उर्वरकों तथा जहरीले कीटनाशकों के लिए दी जानेवाली भारी सब्सिडी को समाप्त करके उस पैसे को जैविक कृषि में लगे कृषकों की मदद में खर्च नहीं कर सकते?


संपर्क पता : 

जय प्रभा नगर, मझौलिया रोड, मुजफ्फरपुर . 842001 (बिहार)
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बुधवार, 31 मार्च 2021

जल, जमीन और मछुआरे

  • अनिल प्रकाश 

1982 में कहलगांव (भागलपुर) के स्थानीय मछुआरों एवं सामाजिक रूप से सक्रिय युवाओं ने मिलकर गंगा मुक्ति आंदोलन की शुरुआत की थी। उस समय भागलपुर जिले के सुल्तानगंज से लेकर पीरपैंती तक 80 किलोमीटर तक की गंगा की बहती धारा में मछली पकड़ने के अधिकार की जमींदारी चल रही थी। 1990 आते-आते प्रथम चरण का करबंदी आंदोलन सफल हुआ और पानी की यह जमींदारी समाप्त हुई। लेकिन जमींदारी की समाप्ति से पूरी समस्या हल नही होने वाली थी, क्योकि बिहार के पाँच सौ किलोमीटर गंगा क्षेत्र में मछली पकड़ने का ठेका स्थानीय मछुआ सहकारी समितियों के मार्फत उन लोगों के हाथ चला जाता था जिनका कोई संबंध मछली पकड़ने के काम से न था और न ही यह इनका पुश्तैनी पेशा रहा। जिनके हाथों में वैध-अवैध बंदूकों की ताकतए पैसा और राजनैतिक संबंध थेए ऐसे जल मापिफयाओं के हाथ में ही पूरी गंगा थी। फिर आंदोलन चला। पूरी गंगा में मछुआरों ने टैक्स देना बंद कर दिया । अंततः जनवरी 91 में बिहार सरकार ने घोषणा की, तत्काल प्रभाव से गंगा समेत बिहार की सभी नदियों की मुख्य धारा तथा उससे जुड़े झील-ढ़ाब में परंपरागत मछुआरे निःशुल्क मछली की शिकारमाही करेंगे। इन पर जलकरों की कोई बंदोबस्ती नहीं होगी। सभी परंपरागत मछुआरों को शीघ्र पहचान.पत्रा बनाकर सरकार देगी। नाईलोन के बड़े.बड़े जाल से मछली पकड़ने पर प्रतिबंध लगाया जाता है। मछली पकड़ने में विस्पफोटकों के इस्तेमाल पर पाबंदी रहेगी। जहर यानी रासायनिक कीटनाशक के इस्तेमाल से मछली पकड़ने पर प्रतिबंध् रहेगा। उधर, पश्चिम बंगाल के उधवा बादशाही ब्रिज से नीमतीता छमघाटी यइस्लामपुरद्ध के बीच चौंसठ किलोमीटर तक गंगा के क्षेत्रा में आज तक मछली की ठेकेदारी प्रथा कायम है। वहां भी मछुआरों का भयंकर शोषण हो रहा है और मार्क्सवादी सरकार टुकुर-टुकुर देख रही है। पर जो सवाल सबसे महत्वपूर्ण रूप में उभर कर आया हैए वह है फरक्का बराज का सवाल। फरक्का बराज के कारण पूरे उत्तर भारत की ग्रामीण अर्थव्यवस्था ध्वस्त हो गयी है, करोड़ों लोगों के जीविका के साधन नष्ट हो गये हैं। बाढ़ और जल के बढ़ते प्रकोप ने गंगा क्षेत्र के लोगों को बेहाल कर दिया है। 1975 में जब फरक्का बराज बनकर तैयार हुआ थाए तब मार्च महीने में वहां गंगा में बहत्तर फीट पानी रहता था। अब नदी बालू.मिट्टी से भर गयी है। 2001 के मार्च में वहां पानी की गहराई सिर्फ तेरह फीट थी। बराज बनने के बाद केवल मालदा और मुर्शिदाबाद जिले में छह सौ वर्ग किलोमीटर से भी ज्यादा उपजाउ भूमि कटावग्रस्त हो गयी है। इस दौरान वहां पांच लाख से ज्यादा लोग विस्थापित हुए। फरक्का सुपर थर्मल पावर कॉलोनी के पास एक झोपड़ी में रहने वाले 63 वर्षीय इंसान अली बताते हैं कि जब फरक्का बराज बन रहा था, उनका गांव सिमलतल्ला गंगा से लगभग छह किलोमीटर दूर था। बराज बनने के बाद हर साल मिट्टी का तेज कटाव शुरू हुआ और गांव के गांव गंगा में विलीन होने लगे। इंसान अली के गांव के लगभग एक हजार घर नदी में समा गये। यही हाल राधनगर, उधवा, मानिकचंद, मालदा, राजनगर जैसे सैकड़ों गांवों का हुआ। कटाव और विनाश का क्रम लगातार जारी है।

बिहार और उत्तर प्रदेश का गंगा क्षेत्र भी बालू से भर गया है। वहां कितना कटाव और विनाश हुआ है, इसका अध्ययन करना अभी बाकी है । फरक्का बराज बनने से पहले गंगा नदी में बाढ़ के समय 150 फीट तक गहरी उड़ाही प्राकृतिक रूप से हो जाती थी। गंगा की सहायक नदियां और नाले भी गहरे रहते थे। परन्तु अब फरक्का बराज बनने के बाद गंगा और उसकी सहायक नदियों और नालों का तल उंचा होता गया है । पश्चिम बंगाल, बिहार और उत्तर प्रदेश में हजारों ऐसे चौर हैं जहां पहले सिर्फ बारिश के समय पानी भरा रहता था। बारिश समाप्त होते-होते उनका पानी नालों और नदियों के मार्पफत निकल जाता था। अब हालत ऐसी हो गयी है कि उन नदियों और नालों का तल चौर के तल से उंचा हो गया है। परिणामतः जल.निकास नहीं हो पाता और ये चौर दस-दस महीने तक जलजमाव से ग्रस्त रहते हैं ।

लम्बे समय तक जलजमाव रहने पर धरती के अंदर का रसायन रिस-रिस कर उपर आता है। भीषण जलजमाव के कारण लाखों-लाख एकड़ जमीन उसर हो गयी है। गंडक एरिया डेवलपमेंट अथॉरिटी यगाडाद्ध की एक रिपोर्ट के मुताबिक सिर्फ गंडक क्षेत्र में दस लाख एकड़ भूमि उसर 'क्षारीय' हो गयी है । केन्द्रीय जल आयोग की रिपोर्ट के मुताबिक भारत में प्रति वर्ष 75 हजार एकड़ कृषि योग्य जमीन उसर होती जा रही है। इसका अधिकांश भाग गंगा के मैदानी इलाकों में पड़ता है। दुनिया भर के मिट्टी वैज्ञानिकों की सर्वमान्य राय है कि गंगा के मैदान उर्वरता की दृष्टि से विश्व में सर्वश्रेष्ठ हैं। ऐसी सोना उगलने वाली धरती का नाश हो रहा है। 

पश्चिम बंगाल, बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, दिल्ली, हरियाणा और राजस्थान की अनेक नदियों का पानी घूम-फिर कर गंगा में मिलता है। इन नदियों में समुद्री मछलियों के आने.जाने का रास्ता फरक्का बराज बनने के बाद रुक गया। दर्जनों किस्म की मछलियां ऐसी हैं जो मीठे पानी में रहती हैं, लेकिन उनका प्रजनन समुद्र के खारे पानी में होता है। झींगा इसका एक उदाहरण है। उसी प्रकार हिलसा जैसी दर्जनों किस्म की मछलियाँ समुद्र में विचरण करती हैं, लेकिन उनका प्रजनन ट्टषिकेश के ठंडे मीठे पानी में होता है। मछलियों की आवाजाही रुकने से उनके प्रजनन की यह प्रक्रिया गंभीर रूप से बाधित हुई। पफरक्का बराज बनने से पहले पश्चिम बंगालए बिहार और उत्तर प्रदेश में गंगा की बहती धारा में वर्षा के समय पर्याप्त अंडा जीरा मिलता था। उस समय इस क्षेत्रा की आवश्यकता पूर्ति के बाद बड़ी मात्रा में अंडा जीरा दूसरे प्रदेशों में भेजा जाता था। अब इस क्षेत्र में कुल आवश्यकता का 25 प्रतिशत अंडा जीरा ही उपलब्ध है। बिहार स्टेट फिशरी डेवलपमेंट बोर्ड के अनुसार बिहार में प्रति वर्ष आठ लाख मिलियन अंडा जीरा की आवश्यकता है । वर्त्तमान में बिहार के गंगा.क्षेत्रा में इसकी सालाना उपलब्धता घट कर दो लाख मिलियन ही रह गयी है। अब बहुराष्ट्रीय कम्पनियां, उनके साझेदार तथा अन्य बड़े पूंजीपति आंध्र प्रदेश तथा अन्य स्थानों पर आर्टिफिशियल हैचरी का निर्माण करके अंडा जीरा और फिंगरलिंग मनमाने दामों पर बेच रहे हैं।

फरक्का बराज बनने के बाद गंगा से जुड़ी इन तमाम नदियों में 75 प्रतिशत से भी ज्यादा मछलियां समाप्त हो गयीं । न केवल उनकी तादाद घटीए बल्कि बड़े आकार वाली चार-पाँच फीट वाली मछलियां देखने को नहीं मिलतीं । पफलतः इन राज्यों के मछुआरे कंगाल हो गए । पहले इन क्षेत्रों से मछलियां दूसरे राज्यों में भेजी जाती थीं । लेकिन अब प्रतिदिन एयरकंडीशन ट्रकों में भर-भर कर आंध्र प्रदेश से मछलियां यहां लायी जाती हैं।


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शनिवार, 27 सितंबर 2014

World Bank discuss Ganga project with river activists


गंगा की हिफाजत


‘लौटा द नदिया हमार’

  • एलएस कॉलेज में दो दिवसीय राष्‍ट्रीय सेमिनार का समापन
  • गंगा को बचाने के लिए सर्वसम्मिति से मुजफ्फरपुर सहमति पारित


मुजफ्फरपुर। एलएस कॉलेज में दो दिवसीय राष्‍ट्रीय सेमिनार संरक्षण एवं चुनौतियां के आखिरी दिन शुक्रवार को मुजफ्फरपुर सहमति को पारित किया गया। इसके अनुसार हमारे लिए गंगा की हिफाजत का मतलब हैगंगोत्री से बंगाल की खाड़ी तक पूरी जिन्दगी की हिफाजत। विकास की सोच पर पुर्नविचार की जरुरत महसूस करते हैंजो अपनी मूल प्रवृति में विध्वंसात्मक और गैर लोकतांत्रिक है। लौटा द नदिया हमार


डॉ. कैसर शमीम ने कहा कि गंगा का मतलब जिंदगी है। गंगा की हिफाजत का मतलब है, गंगोत्री से बंगाल तक पूरे इलाके की जिंदगी, हर नदी,पोखर की हिफाजत। यह खुशकिश्‍मती है कि तिरहुत की नदियां गंगा में साफ पानी डाल रही हैं। ऐसा अन्‍य जगह देखने को नहीं मिलता है। सामाजिक सरोकार और विज्ञान के साथ काम करेंगे तभी गंगा को बचाने की अहमियत का पता चलेगा। गंगा को बचाने की मुहीम में सिर्फ सरकारी मुहीम की चर्चा हो रही है। अभी तक इस मसले पर केंद्र सरकार का मिजाज साफ नहीं है। लेकिन जो भी जानकारी बाहर आई है, वह किसान, नदी और पर्यावरण के लिए ठीक नहीं है। इसके अनुसार मछली पकड़ने पर रोक और स्‍मार्ट सिटी बनाने की योजना है। यहां अजीब सरकारी सोच है जिसे लगता है कि टूरिस्‍ट के घूमने व प्रदूषण फैलाने से गंगा को नुकसान नहीं होगा और मछली पकड़ने से नुकसान हो जाएगा। डॉ. शमीम ने कहा कि सामाजिक सरोकार की सोच से ही गंगा को बचाया जा सकता है। उन्‍होंने कहा कि इस सामाजिक मुहीम में स्‍थानीय बोली और भाषा महत्‍वपूर्ण है। अपनी बोली में आंदोलन होगा तो लोगों को अपनापन का एहसास होगा। उनके पास स्‍थानीय बोली में ज्ञान का भंडार है। यह गंगा को बचाने में काम आ सकेगी।


डॉ. रीना ने कहा कि गंगा पर बांध बनाकर इसकी गति को रोकना बड़ा अपराध है। उन्‍होंने कहा कि पहली बार गंगा पर ब्रिटिश सरकार ने हरिद्वार के पास बांध बनाने की कोशिश की थी। उस वक्‍त वर्ष 1916 में महामना मदन मोहन मालवीय ने विरोध किया और तब अंग्रेज सरकार ने समझौता किया कि गंगा पर डैम नहीं बनेंगे। अब ऐसे ही कदम की जरूरत है। उन्‍होंने गंगा को धार्मिक आस्था के आधार पर गंगा पर न बांधने की अपील की। उन्‍होंने कहा कि गंगा राजनीति से अलग जनकल्‍याण के लिए जरूरी है। यह ऐसा नाम है जिसे स्‍मरण से ही तनमन ही नहीं आत्‍मा भी पवित्र हो जाती है। उन्‍होंने सुझाव दिया कि गंदे जल को गंगा में न मिलाकर इसका उपयोग सिंचाई में किया जा सकता है।

एलएस कॉलेज में इतिहास के प्राध्‍यापक डॉ. अशोक अंशुमन ने ब्रिटिश राज के समय पानी को लेकर हुए आंदोलन और इसके प्रभाव से बदले गए कानूनों पर चर्चा की। इससे लोगों को पानी और मछलियों पर अधिकार मिला।

कॉमर्स कॉलेज, पटना के प्रो. सफदर ईमाम कादरी ने कहा कि गंगा को लेकर केंद्र सरकार का विचार भ्रमक है। ऐसा इसलिए कि एक तरफ इसे धर्म की ईकाई बताया जा रहा है तो दूसरी तरफ आर्थिक मामला। उन्‍होंने कहा कि गंगा की सफाई की योजना बनाने से पहले पुराने गंगा एक्‍शन प्‍लान की समीक्षा जरूरी है। उस योजना में कई हजार करोड़ रुपए खर्च किए गए। पता लगाना चाहिए कि आखिर कहां-कहां गड़बड़ी हुई। अब सरकार पुरानी बात भूलकर एक बार फिर से नई भूल करने जा रही है। प्रो. कादरी ने कहा कि गंगा पर बहूस्‍तरीय नीति बनाने की जरूरत है। गंगा की मुक्ति के लिए जाति-संप्रदाय से ऊपर उठकर बोलना होगा, क्‍योंकि गंगा सबकी है।

पानी आंदोलन में जुटे सामाजिक कार्यकर्ता अफसर जाफरी ने बताया कि गंगा की सफाई और इसपर बराज बनाने की योजना के पीछे जल के निजीकरण की छिपी हुई योजना है। चुपके-चुपके दिल्‍ली (साउथ दिल्‍ली), नागपुर, मुम्‍बई, मैसूर, खंडवा और बैंग्‍लोर में पानी का निजीकरण किया जा चुका है। उन्‍होंने बताया कि दिल्‍ली में टिहरी से स्‍पेशल नहर से पानी आता है और इसे निजी कंपनी साउथ दिल्‍ली में सप्‍लाई करती है। उन्‍होंने अपने अनुभव को साझा करते हुए कहा कि यहां पानी इतना महंगा है कि एक साल में वह 11 हजार रुपया बिल जमा कर चुके हैं। उन्‍होंने बताया कि केंद्र सरकार से जो सूचनाएं बाहर आईं हैं उसके मुताबिक करीब 40 बराज बनाने की बात चल रही है। ऐसा करके पानी को निजी कंपनियां के मार्फत बेचने की योजना है।उन्‍होंने कहा कि डब्‍ल्‍यूटीओ पानी के निजीकरण की कोशिश कर रहा है। पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप के नाम पर स्‍वेज, टेम्‍स वाटर जैसी बड़ी कंपनियां इस इंतजार में हैं कि जल्‍द से जल्‍द उन्‍हें पानी के बड़े पैमाने पर बिक्री का अधिकार मिले।

सामाजिक विचारक किशन कालजयी ने कहा कि गंगा समेत पकृति के साथ लगातार बदसलूकी की जा रही है, ऐसे प्रकृति का पलटवार कभी जम्‍मू-कश्‍मीर तो कभी उत्‍तराखंड की जल त्रासदी के रूप में सामने आता है। इसके बावजूद हम ठीक से नहीं बना रहे हैं। उन्‍होंने कहा कि भारत में भौगोलिक विविधता है और यहां के स्‍थानीय मुद्दों को ध्‍यान में रखकर सरकार को योजना बनाना चाहिए।
उन्‍होंने कहा कि गंगा की सफाई पर कुल 29 हजार करोड़ खर्च हो चुके हैं। इस पर श्‍वेत पत्र जारी होना चाहिए। जनता को यह हक होना चाहिए, हमारे पैसे को कैसे खर्च किया गया है।


दूसरे सत्र में हिमालयन इकोलॉजिस्‍ट जयंत बंधेपाध्याय ने स्‍काइप पर वीडियो चैट के माध्‍यम से अपना विचार रखा। उन्‍होंने कहा कि प्रकृति के नब्ज को बिना समझे प्रोजेक्ट बनाने से हम लगातार संकट में जा रहे हैं।
डॉ. डीके मिश्रा ने फोन पर अपना व्‍याख्‍यान दिया। उन्‍होंने कहा कि नदियों पर जितने ज्‍यादा बराज बनेंगे, उतना ही ज्‍यादा नदी में बालू जमा होगा। यह खतरनाक स्थिति होगी। बराज बनाकर जहाज चलाने से गंगा गंगा न रह जायेगी।

वरिष्‍ठ पत्रकार संतोष भारतीय ने स्‍काइप वीडियो कांफ्रेंसिंग के माध्‍यम से कहा कि गंगा मुक्ति में लगे हुए लोग और यमुना को जिन्दा रखने के आंदोलन को जोड़ना यह भी एक बड़ा आंदोलन है। सैडेड संस्‍था के संयोजक विजय प्रताप ने आम जनता के समझने के वैचारिक व आंदोलनात्‍मक संघर्ष को मुजफ्फरपुर सहमति’ पत्र से जोड़ने की बात कही। एलएस कॉलेज के प्राचार्य डॉ. अमरेंद्र नारायण यादव ने कहा राष्‍ट्रीय सेमिनार गंगा बेसीन : संरक्षण एवं चुनौतियां से समाज में एक चेतना फैलाने का भी प्रयास हुआ है। सामाजिक कार्यकर्ता अनिल प्रकाश ने समापन समारोह के दौरान मुजफ्फरपुर सहमति को पेश किया। इस पर सर्वसम्‍मति से सहमति बनी। कार्यक्रम में गंगा बेसीन के संरक्षण और चुनौतियों पर पेंटिंग बनाने वाली छात्राओं को सम्‍मानित किया गया। कार्यक्रम के समापन समारोह की अध्‍यक्षता पूर्व डीजीपी रामचंद्र खान ने की। वक्‍ताओं में प्रो. नित्‍यानंद शर्मा आदि शामिल थे।

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मुजफ्फरपुर सहमति - लौटा द नदिया हमार

1. 25 और 26 सितमम्बर 2014 को मुजफ्फरपुर में हुए गंगा समाज के प्रतिनिधियोंविचारकोंलेखकों,  कलाकर्मियोंवैज्ञानिकोंजनपक्षी अभियंताओंसमाज वैज्ञानिकोंसांस्कृतिक कर्मियोंनदी आंदोलन से जुड़े लोगों एवं नदी के साथ गलत छेड़-छाड़ के कारण पीडि़त लोगों और विशेषज्ञों का यह समागमहमारी उन चिन्ताओं का प्रतीक हैजो हमारे पूरे क्षेत्रा की जैव-विविध्ता (बायोडाइवर्सिटी) के बारे में हमारे मन में है। हम अपनी इस चिन्ता में नेपाल और बांग्लादेश के लोगों को भी अपना साथी मानते हैं। जो गंगा की ताबाही से मुतासिर हो रहे हैं।
2. जब हम गंगा बेसिन की बात करते हैं तो हम उन तमाम नदियों और जलाशयों की भी बात करते हैंजिनका प्रदुषित पानी गंगा में पहुँचकरगंगा की अपनी सपफाई की क्षमता को भी नष्ट कर रहा है। हमारी चिन्ताओं में नदी के किनारे बेहंगम बसे शहरों एवं कल-कारखानें भी शामिल हैंजिनका अनट्रीटेड वेस्ट और जहरीला पानी गंगा को तिल-तिल मार रहा है। केन्द्रीय प्रदूषण बोर्ड की 2013 की रिपोर्ट कहती है, गंगा के किनारे बसे शहरों के जरिए 2723 मिलीयन लीटर कचरा और सीवर की गलाजत रोजाना गंगा में डाली जा रही हैये सरकारी आँकड़ा है। असल में तो इससे कई ज्यादा गलाजत हमारी उन दरियाओं में डाला जा रहा हैजिनका पानी गंगा में गिरता है। खुद केन्द्रीय प्रदूषण बोर्ड ने पाया है कि 6000 मिलीयन लीटर गंदा पानी रोजाना गंगा में डाला जा रहा है।
3. हमारे लिए गंगा की हिफाजत का मतलब हैगंगोत्री से बंगाल की खाड़ी तक पूरी जिन्दगी की हिफाजत। उसके जलवायु की हिफाजतजमीन का बचावखेती और हरियाली की हिफाजतजानवरों और पौधें का बचाव और वो सब कुछ जो इस क्षेत्र की जिन्दगी को बचाये रखने के लिए जरुरी है। इन सबके बीच धरती का वो इन्सान हैंजिसके लिए इस पूरे वातावरण को बचाया जाना है यानि हमारे मछुआरेकिसानमालीबढ़ईमीर शिकार,कुम्हारधोबीसपेरे यानि गंगा के मैदान में बसी पुरी आबादी जिसका जीना- मरना गंगा के साथ है। ये वो लोग हैंजो अपनी जीविका के लिए गंगा पर आश्रित है और जो अपने सीने में सदियों के इंसानी तजुर्बे का खजाना सुरक्षित रखा हैं।
4. विज्ञान भले हीं 80 प्रतिशत जीव-जन्तुओं का नामकरण नहीं कर पाया होमगर इनकी अपनी बोली में उनका कोई न कोई नाम जरुर होता है और वो उसका ऐसा ज्ञान रखते हैं जहाँ तक विज्ञान की पहूँच नहीं हो सकी है। लेकिन उनका ये सारा ज्ञान उनकी अपनी बोलियों में है। जिसके बिना इंसानी तजूर्बे के इस बड़े खजाने को बचाया नहीं जा सकता। जब भी कोई भाषा लुप्त होती है तो उसके साथ सदियों में जमा किया गया इंसानी तजूर्बे का खजाना भी लुप्त हो जाता है। इसीलिए हम जैव-विविधता और भाषायी विविधता के आपसी रिश्ते पर जोर देते हैं और हमारा मकसद इस ध्रती की पुरी विविधता की हिफाजत है।
5. इन सबके बीच है गंगा की सफाई की सरकारी बातेंजिसका हाल अन्य सरकारी स्कीमों की तरह है। यानि पहले कैंसर पैदा करने वाले फल एवं सब्जियाँ उगाओलोगों की सेहत बरबाद करने का मुकम्मल बंदोबस्त करें और पिफर कैंसर के अस्पताल खोलों और बिमारियों का इलाज ढ़ूँढ़ो। अब तक की तबाही क्या कम थी की हमारी सरकार अब इलाहाबाद से बंगाल के खाड़ी के बीच 16 बराज बनाने की बात कर रही है। जिसका मतलब होगा,गंगा को 16 बड़े तालाबों में बदल देना। इन सबके नतीजें में जो ताबाही फैलेगी तो फिर उसका इलाज ढूंढ़ने के लिए तेजारती कंपनियाँ सामने आयेगी,जिनका मकसद सिपर्फ मुनाफा कमाना है। उनको इलाज ढूँढ़ने के जरिए भी मुनाफा कमाने का एक और मौका मिलेगा। सरकार नदी के किनारे जगह-जगह टूरिज्म के सेन्टर खोलना चाहती हैजिससे सरकार को मामूली मगर टूरिज्म से जुड़े तेजारती घरानों को अधिक लाभ होगा।
6. जलवायुजमीनआसमानपहाड़जंगलसूरज और उसकी धूप तथा उससे पैदा होनेवाली ऊर्जा जनसंपदा है। सरकार को इसके सुचालन के लिए चुना जाता है। वो इसकी मालिक कतई नहीं है। इसलिए उसे कतई ये अधिकार नहीं है कि वो जनसम्पदा को बाजार की चीज बनायें। हम इसे मुजरिमाना कार्रवाई मानते है।
7. हम गंगा से उस रागात्मक संबंध की बात करते हैंजो पुरी प्रकृति के साथ होना चाहिए ताकि यह धरती इंसान के रहने लायक रह सके और उसे सुख दे सके। इंसान और तमाम जानदार के लिए जीने का बेहतर माहौल बनाये रखना हम अपनी जिम्मेवारी समझते हैं। गंगाप्रकृति के साथ रागात्मक संबंध बनाये रखने की इस जद्दोजहद का प्रतीक है। हम पुरे विकास की सोच पर पुर्नविचार की जरुरत महसूस करते हैंजो अपनी मूल प्रवृति में विध्वंसात्मक और गैर लोकतांत्रिक है।
8. हम प्रस्तावित करना चाहेंगे कुछ उन लोगों के नाम जो इस सेमिनार के बाद मिल बैठ कर इस सहमति को सक्रिय सोच विचार और संघर्ष के रूप में परिवर्तित कर दो महीने के अंदर 26 दिसंबर 2014 को एक प्रारूप प्रस्तुत करेगी।
इस संबंध में हमारी एकजुट मांग है, ‘लौटा द नदिया हमार

गुरुवार, 25 सितंबर 2014

बराज की श्रृंखला नष्‍ट कर देगी गंगा को


  • अमेरिका में फेल हो चुकी बराज योजना को गंगा में लागू करना चाहती है सरकार
  • एलएस कॉलेज में दो दिवसीय गंगा सेमिनार शुरू

मुजफ्फरपुर। एलएस कॉलेज में गुरुवार को ‘गंगा बेसीन : संरक्षण एवं चुनौतियां’ विषय दो दिवसीय राष्‍ट्रीय सेमिनार का उद्घाटन समाजवादी चिंतक सच्चिदानंद सिन्‍हा ने किया।
इस दौरान प्रसिद्ध अर्थशास्‍त्री व सामाजिक कार्यकर्ता डॉ. भतर झुनझुनवाला ने कहा कि केंद्र सरकार ने गंगा पर बैराज की श्रृंखला बनाने की विध्‍वंसकारी योजना बना रही है। ताकि आयातित कोयले को बिजलीघरों तक गंगा के जल मार्ग से पहुंचाया जा सके। कुछ औद्योगिक घरानों का फायदा पहुंचाकर गंगा को नष्‍ट( करने की योजना है। इसके लिए गंगा में गहराई की जरूरत है। जबकि गंगा में कई जगह पर गहराई मात्र छह फीट है। इसलिए यहां पर 16 से 22 बराज बनाने की योजना है। लेकिन असलिय यह है कि इससे गंगा नष्‍ट हो जाएगी। उनहोंने अमेरिका की सबसे बड़ी नदी मिस्‍सीसिपी का उदाहरण देकर बताया कि वहां पर बैराज की श्रृंखला बनाने की वजह से नदी और वहां के इलाकों में तबाही आ गई है। मिस्‍सीसिपी नदी पर बराज की श्रृंखला बनाने से पहले वहां के आस-पास मिट्टी ऊंची थी। मैंग्रोव का जंगल था। जंगल खत्‍म हो गए। अमेरिकी सरकार के यूएस गवर्नमेंट एकाउंटेबलिटी ऑफिस की रिपोर्ट में कहा गया है कि बराज की श्रृंखला से नदी की जैविकता पर प्रभाव पड़ा है। इलाकों में बाढ़ आ गई।
उन्‍होंने कहा कि बराज बनने से पहले मिस्‍सीसिपी नदी बालू लेकर आती थी और समुद्र में डालती थी। समुद्र का भोजन बालू है। नदी के माध्‍यम से बालू जाने से यह भूमि का कटान नहीं करती है। वहां बैराजों में सिल्‍ट जमने लगा और पानी जंगलों में फैलने लगा। पांच हजार वर्ग किलोमीटर जमीन समुद्र में घिर चुकी है। तटिय क्षेत्र को बालू नहीं मिलने से ऐसा हुआ। नदी का तल ऊंचा होने से इसकी सहायक नदियों में भी जलस्‍तर बढ़ गया।
डॉ. झुनझुनवाला ने कहा कि अमेरिका में फेल हो चुकी व्‍यवस्था को सरकार गंगा नदी में लागू करना चाहती है। ताकि सस्‍ते में कोयला की ढुलाई हो सके। ऐसा हुआ तो गंगा 16 तालाबों में तब्‍दील हो जाएगी। उन्‍होंने कहा कि बराज से नुकसान का सबसे बड़ा उदाहरण फरक्‍का बराज है। दुनिया में सबसे ज्‍यादा सिल्‍ट चीन की पीली नदी और भारत की गंगा में उत्‍पन्‍न होता है। फरक्‍का बराज से गंगा की गति धीमी हो जाती है और उसके साथ आ रहा सिल्‍ट जम जाता है। इसके बाद जलस्‍तर ऊंचा होता है और डूब क्षेत्र बढ़ रहा है। अब ड्रेनेज से पानी निकालने की कोशिश चल रही है, ताकि नहर में पानी भेजा जा सके।
पहले गंगा बालू को समुद्र तक ले जाती थी, लेकिन फरक्‍का बराज से उसकी क्षमता का ह्रास हो गया है। सिल्‍ट न जाने से पश्चिम बंगाल में समुद्र किनारे बड़ा क्षेत्र डूबता जा रहा है। उन्‍होंने कहा कि फरक्‍का बराज से कुछ फायदा हुआ है लेकिन नुकसान बेहद ज्‍यादा है। उन्‍होंने कहा कि कठोर निर्णय लेकर फरक्‍का बराज को तोड़ देना चाहिए।
उन्‍होंने कहा कि अगर गंगा पर बराज की श्रृंखला बनी तो गंगा की सहायक नदियों में भी बराज बनाना होगा। इससे यहां की नदियां उफनाएंगी और बा़ढ का जबरदस्‍त खतरा ज्‍यादा बढ़ेगा।
उन्‍होंने कहा कि मौसम वैज्ञानिकों की रिपोर्ट है कि क्‍लाइमेट चेंज की वजह से बरसात के तीन महीने का पानी इकट्ठा अगस्‍त में ही बरसने की परंपर बढ़ेगी। ऐसे में बराज की श्रृंखला हुई तो नदी की पानी संग्रहण की क्षमता घट जाएगी और बढ़ के भयावह रूप को देखना होगा।
उन्‍होंने सुझाव दिया कि केंद्र सरकार को बड़े जहाज के लिए बराज बनाने की जगह इसमें छोटे जहाज से माल ढुलाई करना चाहिए। सोलर पावर की लागत कम होने वाली है, ऐसे में कोयला आधारित बिजलीघरों की जगह सोलर पावर का उपयोग बढ़ाया जाना चाहिए।
उन्‍होंने कुछ उदाहरण देकर बताया कि नदी से पानी को नहरों में भेजने के लिए इसपर बराज बनाने की आवश्‍यकता नहीं है।

समाजवादी चिंतक सच्चिदानंद सिन्हा ने कहा कि जब तक हम कचरा पैदा करने वाले विकास के रास्ते को नहीं, छोड़ेंगे, तब तक गंगा को प्रदूषण मु‍क्‍त नहीं किया जा सकता है। सारे विकास की दृष्टि को बदलने की जरुरत है। विज्ञान का इस्‍तेमाल कर प्रकृति पर नियंत्रण करने की कोशिश में हम गलत दिशा में जा रहे हैं। इससे प्रकृति का अधिक से अधिक दोहन हो रहा है और गंगा नष्‍ट हो रही है। उन्‍होंने कहा कि धार्मिक अंधता की वजह से भी गंगा प्रदूषित हो रही है।
उन्‍होंने कहा कि दिल्ली में यमुना गंदा नाला बन गया है। बड़े नगर के लिए गंगा से पानी निकाला जा रहा है। हिमालय से निकलने वाली पानी धीरे-धीरे कम हो रहा है। बड़े औद्योगिक प्रतिष्ठानों का कचरा गंगा में डाला जा रहा है।

सेमिनार के संयोजक अनिल प्रकाश ने कहा कि ढ़ाई सौ साल से विकास की अवधारणा है कि प्रकृति को दास मानकर उसका अधिकतर दोहन किया जाए। इस गलत दृष्‍ट‍िकोण की वजह से महाप्रलय का खतरा है और यह दुनिया भर के वैज्ञानिकों की सर्वमान्‍य राय है। गंगा हम जब बोलते हैं तो उससे जुड़ी सभी नदियां हैं, हिमालय और पूरा इको सिस्‍टम भी है। एक फरक्‍का बराज बना और इससे आठ राज्‍यों में हिल्‍सा जैसी कई मछलियां गंगा से गायब हो गईं। बीस लाख मछुआरों की रोजी उजर गई।
उन्‍होंने कहा कि अब गंगा को छोटे छोटे तालाबों में तब्‍दील करने, पिकनिक स्‍पॉट बनाने, रिजॉट बनाने, गंगा के किनारे स्‍मार्ट सिटी बनाने, धर्म के नाम पर अनैतिक काम करने के मंसूबे पर को सफल नहीं होने देंगे। उन्‍होंने कहा कि यह राजनीतिक नहीं, बल्कि सांस्‍कृतिक और सामाजिक सेमिनार है।
जिस तरह से मां का दूध बच्‍चे के लिए संसाधन नहीं होता है, वैसे ही खेत और न‍दी हमारे लिए संसाधन नहीं हो सकती है। नदियां खत्‍म करेंगे तो मानव जाति और जीव जगत पर संकट आ जाएगा।

जल आंदोलनों से जुड़े पश्चिम बंगाल के विजय सरकार कहा कि विकास के बहाने हम महाप्रलय के रास्‍ते पर चल पड़े हैं। उन्‍होंने बताया कि कोलकाता से एक साइकिल यात्रा गंगोत्री से गंगासागर तक जाएगी। इसके माध्‍यम से गंगा के आस-पास बसी जिंदगी की युक्ति भी जानेंगे और गंगा पर बन रही गलत नीतियों के बारे में जागरूक किया जाएगा।
सामाजिक कार्यकर्ता रंजीव ने कहा कि उनका मानना है कि बिहार में गंगा नहीं है। गंगा को टिहरी डैम में बांध दिया गया है। बिहार में जो गंगा दिखती है वह इसकी सहायक नदियों का पानी है। उन्‍होंने कहा कि यही मौका है विचार करने का कि हमें कैसा विकास चाहिए।
रंजीव ने कहा कि वर्ष 2000 से बिहार लगातार क्‍लाइमेट चेंज से पीडि़त हैं। लेकिन आज तक बिहार सरकार ने इसे ध्‍यान में रखकर नीतियां नहीं बनाई है। जब उत्‍तराखंड में बादल फटा तो इससे हम पीडि़त हुए। यहां गंगा का पानी कई महीने तक उल्‍टी दिशा में जाती है। टिहरी और फरक्‍का बराज से गंगा को रोक दिया गया, यह अविरल नहीं है।  
एसएस कॉलेज के प्रोफेसर डॉ. भुजनंदन प्रसाद ने कहा कि राष्‍ट्रीय सेमिनार ने गंगा पर आ रही चुनौतियों पर माकूल जवाब देने के लिए बौद्धिक रूप से धनी बनाया है।
कार्यक्रम के आयोजक व एलएस कॉलेज के प्राचार्य डॉ. अमरेंद्र नारायण यादव ने कहा कि अतिथियों का स्‍वागत किया। उन्‍होंने कहा कि गंगा को लेकर इस तरह का मंथन इसके रखवालों को एक दिशा देगा। प्रथम सत्र का धन्‍यवाद ज्ञापन प्रो. नित्‍यानंद शर्मा ने किया। कार्यक्रम का संचालन विजय कुमार चौधरी ने किया।

द्वितीय सत्र

भागीरथ से गंगा ने कहा था – मैं संसार की सबसे अभिशप्‍त नदी बनने जा रही हूं
दूसरे सत्र में गंगा से आस-पास बीमारी व कृषि पर चर्चा
मुजफ्फरपुर। एलएसए कॉलेज में आयोजित राष्‍ट्रीय सेमिनार के दूसरे सत्र में पूर्व डीजीपी रामचंद्र खान ने कहा कि पुराणों में गंगा के प्रदूषित होने की आशंका भी जताई गई थी। जब भागीरथ, गंगा को पृथ्‍वी पर लाने की प्रार्थना कर रहे थे, तब गंगा ने कहा था- ‘ मैं संसार की सबसे दुखी, सबसे अभिशप्‍त रखने वाली नदी बनने वाली हूं। जिस देश में तुम मुझे लेकर आए हो, उसकी सारी गंदगी मुझ में गिराई जाएगी और फिर मेरा उद्धार करने वाला कोई नहीं होगा। जब तक मैं समुद्र में जाती रहूंगी तब तक अभिशप्‍त रहूंगी।‘
रामचंद्र खान ने कहा कि अब यह सच साबित हो रहा है। गंगा लगातार प्रदूषित होती जा रही है और इसके लिए बनने वाली योजना बेहद चिंताजनक हैं।
उन्‍होंने कहा कि अमेरिका में डैम को तोड़ा जा रहा है और भारत में नया बनाने की कोशिश चल रही है। अमेरिकी उदाहरण को भी समझना चाहिए।

चिकित्‍सक डॉ. प्रगति सिंह ने कहा कि गंगा से उनका व्‍यतिगत लगाव रहा है। उन्‍होंने कहा कि हम स्‍वयं दोषी हैं गंगा को प्रदूषित करने में। आस्‍था के नाम पर फूल मालाएं, मूर्तियां व अधजले शव प्रवाहित कर देते हैं। गंगा को बचाने पर लोगों का ध्‍यान ज्‍यादा नहीं जाता है। एक संकल्‍प लेना पड़ेगा कि हमें खुद भी प्रयास करें कि गंदा न करें।
उन्‍होंने कहा कि गंगा के प्रदूषण से बहुत सी बीमारियां फैल रही हैं और इसके इलाज में खर्च बेहद ज्‍यादा हो रहा है। इसलिए गंगा का ऐसा स्‍वरूप ऐसा बनाएं कि गंगा में प्रवाहित होने वाले कचरे को दूर हो सके।
कृषि वैज्ञानिक व राजेंद्र कृषि विश्‍वविद्यालय के कुलपति डॉ. गोपाल जी त्रिवेदी ने कहा कि प्रकृति से छेड़छाड़ नहीं करना चाहिए। हमें प्रकृति के साथ रहने की आदत डालना पड़ेगा। हम चाहते हैं कि प्रकृति को मुट्ठी में बंद कर दें, यह नहीं होना चाहिए। उन्‍होंने कहा कि भारतवर्ष में गंगा के आस-पास सबसे ज्‍यादा उत्‍पादकता थी। यहां की खेती नदियों की मिट्टी पर होती थी। फसल इतनी अच्‍छी होती थी। नदियों को जोड़ने का बांध बनाने का या अन्‍य योजना बनाकर इसे खत्‍म किया जा रहा है।
टिहरी में बांध बना दिया है। ऐसी आशंका है कि जैसे उत्‍तराखंड और जम्‍मू कश्‍मीर में बाढ़ आ गया, वैसे बारिश हुई तो पूरा बिहार और यूपी डूब जाएगा।
कार्यक्रम में खगडि़या से आए चंद्रशेखर ने भी विचार व्‍यक्‍त किए। 

मंगलवार, 9 सितंबर 2014

नदियों से नहीं होनी चाहिए छेड़छाड़

  • 111 शहरों में चले गंगा सफाई अभियान : रामचंद्र खान
  • मुजफ्फरपुर में ‘गंगा : संरक्षण व चुनौतियां’ पर होगा सेमिनार
संवाददाता, पटना
केंद्र सरकार गंगा-सफाई अभियान को सिर्फ बनारस, इलाहबाद व पटना तक में सीमित न करे. गंगा के तट पर 111 शहर बसे हैं, वहां भी सफाई अभियान चलाये सरकार. केंद्र सरकार से इसकी मांग पूर्व आइपीएस अधिकारी रामचंद्र खान ने रविवार को प्रेस कॉन्फ्रेंस में की. उन्होंने कहा कि नदी सफाई को लेकर केंद्र सरकार को यूएनओ की रिपोर्ट का अध्ययन करना चाहिए. राजीव गांधी ने गंगा सफाई अभियान चलाया था, किंतु उसका नतीजा सिफर रहा. नदियों के धरातल घट गये और किनारे मिट गये. नदियों के साथ छेड़छाड़ नहीं होना चाहिए. गंगा सफाई का मामला सिर्फ इंजीनियरिंग का विषय नहीं है, बल्कि विकास का भी विषय है. गंगा मुक्ति आंदोलन के संयोजक अनिल प्रकाश व मुजफ्फरपुर लंगट सिंह कॉलेज के प्राचार्य प्रो अमरेंद्र नारायण यादव ने बताया कि गंगा व हिमालय से जुड़ी समस्याओं पर मुजफ्फरपुर में  26 व 27 सितंबर को ‘गंगा : संरक्षण व चुनौतियां ’ विषय पर दो दिवसीय सेमिनार होगा.
ेउन्होंने बताया कि सेमिनार में पत्रकार कुलदीप नैयर, अर्थशास्त्री डॉ. भरत झुनझुनवाला, पर्यावरण विशेषज्ञ  दीपक ग्यालवी, नदी विशेषज्ञ डॉ. अजय दीक्षित, बांग्लादेश की हसना जे, डॉ दिनेश कुमार मिश्र, राधा भट्ट, डॉ गोपालजी त्रिवेदी, डॉ. कैसर शमीम, डॉ महेंद्र कर्ण, डॉ. ऋतु प्रिया, सुकांत नागाजरुन, संतोष भारतीय, डॉ डीएम दीवाकर, विजय प्रताप, महादेव विद्रोही, डॉ फारूख अली, डॉ आशुतोष, अनिल चमड़िया, श्रीकांत, अरुण त्रिपाठी, अनीश रंजन, शेखर व अंबरीश कुमार शामिल होंगे.  मुजफ्फरपुर सम्मेलन में ‘लौटा दो हमें नदी हमारी’ की योजना पर भी मंथन होगा.
साभार : प्रभात खबर

मंगलवार, 12 अगस्त 2014

नदियों की मौत पर शोकगीत भी नहीं


मानव सभ्यता का विकास नदियों के आसपास ही हुई है। नदियां हमारे लिए जीवनदायिनी स्वरूपा हैं। मनुष्य के अलावा अन्य प्राणियों, वनस्पतियों एवं इको सिस्टम के लिए भी जरूरी हैं। इसलिए तो नदियां प्राचीन काल से इतनी पूजनीय हैं। खासकर गंगा को मां का दर्जा देकर हम पूजते आ रहे हैं। पर, आज स्थिति उलट है। अविरल बहनेवाली नदियां रोकी जा रही हैं। नदी नाले में तब्दील होती जा रही है। निर्मल जल काला पानी में बदलता जा रहा है। नदियों की तलहटी में अपना संसार बसानेवाले जीव-जंतु भी मरते-मिटते जा रहे हैं। कहीं औद्योगिक कचरे से नदियों की सेहत बिगड़ रहा है, तो कहीं धार्मिक आस्था व मानवीय करतूतों से नदी मरती-मिटती जा रही हैं।
उार बिहार में आठ प्रमुख नदियां बहती हैं। ये हैं गंडक, बूढ़ी गंडक, बागमती, कोसी, कमला बलान, घाघरा, महानंदा, अधवारा समूह की नदियां। इन सभी नदियों का जल बिहार के बीचो-बीच से गुजरने वाली गंगा में समाहित हो जाती हैं। बूढ़ी गंडक को छोड़कर शेष सातों नदियां नेपाल से निकलती हैं। बूढ़ी गंडक का उद्गम पश्चिम चंपारण का एक चौर है। उार बिहार में इन बड़ी नदियों के अलावा दर्जनों छोटी-बड़ी नदियां बहती हैं, जो इस मैदानी इलाके की आर्थिक, सांस्कृतिक, सामाजिक समृद्घि में सहायक रही हैं। लेकिन दुर्भाग्यवश गत कई दशकों से ये नदियां बरसाती बन कर रह गयी हैं अथवा तिल-तिल कर मिटती जा रही हैं।
घाघरा नदी वैशाली जिले के लालगंज, भगवानपुर, हाजीपुर, देसरी, सहदेई प्रखंडों से गुजरती हुईं महनार प्रखंड में बाया नदी में मिलती है। आगे जाकर यह गंगा में मिल जाती है। यह नदी बिहार में कई जगह लुप्त दिखती है। पहले यह वैशाली जिले में सिंचाई व्यवस्था की रीढ़ थी। गंडक नदी से आवश्यक जल का वितरण होता था, जो इसके बहाव के पूरे क्षेत्र में हजारों एकड़ जमीन को सींचती थी। चंपारण, मुजफ्फरपुर, वैशाली, समस्तीपुर जिलों की जमीन की प्यास बुझाने वाली बाया नदी का हाल भी बुरा है। दशकों से उड़ाही न होने के कारण इसकी पेटी में गाद जमा हो गया है। गरमी में भी पानी सूख जाता है। किसानों के लिए वरदान रही बाया को पुनर्जीवित  करने के लिए वाया डैमेज योजना बनायी गयी, पर यह ठंडे बस्ते में पड़ी है। मुजफ्फरपुर जिले में कभी बलखाने वाली छोटी-छोटी नदियां माही, कदाने, नासी भी दम तोड़ चुकी हैं। कहीं-कहीं गड्ढे के रूप में नदी का निशान जरूर मिल जाता है।
चंपारण में भपसा, सोनभद्र, तमसा, सिकहरना, मसान, पंडई, ढोंगही, हरबोरा जैसी पहाड़ी नदियां बरसाती बनती जा रही हैं। प्रदूषण का बोझ ढोने को विवश हैं। सिल्टेशन की वजह से ये छिछला होती जा रही हैं। इनमें से कई नदियां खनन विभाग की उदासीनता व बालू माफियाओं के काले धंधे की शिकार हो रही हैं। इस इलाके में नदियों से अवैध ढंग से बालू की बेरोकटोक निकासी की जा रही है। सुतलाबे, सुमौसी, रघवा नदी भी अपनी पुरानी धारा के लिए तरस रही हैं। पूर्वी चंपारण के कल्याणपुर प्रखंड स्थित राजपुर मेला के पास सुमौसी नदी की तलहटी को मि?ी से घेर कर लोगों ने तालाब बना दिया है, जिसमें वे अस्थायी रूप से मत्स्यपालन करते हैं। केसरिया प्रखंड के फूलतकिया पुल के समीप यह नदी अतिक्रमित कर ली गयी है। झांझा नदी दिलावरपुर के पास पूरी तरह संकीर्ण हो गयी है। सीतामढ़ी में लखनदेई, लालबकेया, झीम नदी अब अविरल व निर्मल नहीं बहती हैं। लखनदेई (लक्ष्मणा) की धमनियों में सीतामढ़ी शहर का कचरा बह रहा है। इस नदी के किनारे जमीन अतिक्रमित कर लोग घर बना रहे हैं। रीगा चीनी मिल का कचरा मनुषमारा नदी को जहरीला बना रहा है। बीच-बीच में मनुषमारा, लखनदेई की उड़ाही के लिए आंदोलन भी होते रहते हैं, पर कुछ हुआ नहीं। बागमती के कार्यपालक अभियंता भीमशंकर राय ने बताया कि भारत-नेपाल सीमा के भारतीय इलाके में करीब 8 किलोमीटर में स्थानीय लोगों ने अतिक्रमण कर लखनदेई की पेट में घर बना लिया, जिस कारण उसकी धारा अवरूद्घ हो गयी है। ऐसे में नदी की उड़ाही करना मुश्किल हो रहा है। नदी के किनारे के गांवों में सिंचाई की समस्या उत्पन्न हो गयी है। जमुरा-झीम नदी की धारा मोड़ कर लखनदेई में मिलाने की योजना पर काम हो रहा है।
करहा, धौंस, जमुनी, बिग्छी आदि नदियां मिथिलांचल के किसानों, पशुपालकों के लिए अब उपयोगी नहीं रही। बिग्छी व जमुनी नेपाल स्थित सिगरेट व कागज की फैक्ट्रियों का रासायनिक अवशेष लेकर आती है और धौंस में मिला देती हैं। ये नदियां कालापानी की सजा भुगत रही हैं। इस नदी में स्नान करने का मतलब है चर्मरोग से ग्रसित हो जाना। कुछ साल पहले केंद्रीय जल आयोग की टीम आयी थी। टीम ने धौंस के पानी को अनुपयोगी बताया था। गत दो-तीन साल में अधवारा समूह की कई नदियों की धारा मर चुकी है। दरभंगा जिले में बहनेवाली करेह, बूढ़नद नदियों ने भी अपना प्राकृतिक प्रवाह खो दिया है। नदी विशेषज्ञ रंजीव कहते हैं कि विकास के अवैज्ञानिक मॉडल व जलवायु परिवर्तन के कारण नदियां मर रही हैं। हाल के दिनों में उार बिहार की नदियों में पानी की आवक कम हुई है। इसका कारण है कि गत एक दशक से हिमालय क्षेत्र में बारिश कम हुई है। बूढ़ी गंडक व बागमती नदी के पानी से बना प्रमुख प्राकृतिक झील कांवर झील भी सूख गया है। तालाब जैसा दिखता है। कोसी की सहायक नदियां तिलयुगा पर बांध बनाया गया है। जगह-जगह स्लूइस गेट लगाया गया। इस सिल्ट लोडेड नदी में स्लूइस गेट लगाने से उसकी धारा बदल गयी है। हमें नदियों के विज्ञान को समझना होगा। तभी विकास की रूपरेखा तय करनी होगी।
बागमती की बाई ओर सिपरी नदी कहलानेवाली धारा ‘फलकनी’ तथा ‘हिरम्मा’ गांवों के पास से अलग होकर दाहिनी धारा के समानांतर चलती हुई पूरे मुजफ्फरपुर जिले की पूर्वी सीमा तक बहती थी और दाहिने प्रवाह के साथ जिले की सीमा पर ‘हठा’ नामक गांव के पास मिलती थी, पर यह ‘सिपरी’ धारा भी अब प्राय: लुप्त हो चुकी है। 1970 में बागमती को इस धारा से बहाने का प्रयास किया गया, लेकिन सफलता नहीं मिली। सुलतानुपर भीम गांव के पास ही बागमती की एक प्राचीन ‘कोला’ नदी नामक उपधारा ‘सिपरी’ से मिलती थी। कोला नदी भी प्राय: लुप्त हो चुकी है।
उार बिहार की नदियों में सरयू के बाद पूर्व की ओर दूसरी बड़ी नदी गंडकी है, जिसे नारायणी भी कहते हैं। नेपाल के तराई क्षेत्र में इसे शालीग्राम भी कहा जाता है। यह नदी भी कहीं सिकुड़ गयी है, तो कहीं दूर चली गयी है। नारायणी के किनारे बसे गांव हुस्सेपुर परनी छपरा के युवा किसान पंकज सिंह बताते हैं कि पहले करीब डेढ़ किलामीटर चौड़ाई में नदी का पानी बहता था। अब तो यह नाले की तरह बह रही है। गाद भर गया है। कटाव के कारण हमारे घर के सामने यह नदी मुजफ्फरपुर से रूठ कर छपरा से बहने लगी है।
दरभंगा में एक संगोष्ठी में भाग लेने आये जलपुरुष राजेंद्र सिंह ने कहा कि सन् 1800 में ही ईस्ट इंडिया कंपनी के इंजीनियरों ने बिहार की नदियों के साथ अत्याचार प्रारंभ कर दिया था। इस इलाके के इको सिस्टम को समङो बिना ही पुल, पुलियों, कल्वटरें का निर्माण शुरू कर दिया गया। रेल की पटरियां बिछाने के लिए गलत तरीके से मि?ी की कटाई की गयी। इस कारण नदियों का नैसर्गिक प्रवाह प्रभावित हो गया। इस इलाके में पानी का कंटेंट तेजी से बदल रहा है, जो लोगों को बीमार भी बना रहा है। उन्होंने कहा कि पूरा इको सिस्टम जल पर आधारित होती है और एक समृद्घ इको सिस्टम में ही समृद्घ इकोनॉमी विकसित हो सकती है। जल संरक्षण की नीति बनानेवाले केंद्र व राज्य सरकार के अधिकारी यूपी व उारांचल की नदियों के हिसाब से नीतियां बनाते हैं, जो बिहार में सफल नहीं हो पाते हैं। जल संसाधन विभाग की कवायद भी बांध, बाढ़ व राहत कार्यक्रम तक सिमटी रहती हैं। नदियों के विज्ञान, उसकी सेहत व उसके पानी में पलने वाले जीव-जंतुओं के जीवन की चिंता न सरकार को है और न विभाग को। लिहाजा, जरूरत है कि लोग जीवनदायिनी नदियों को मरने से बचायें।
--- संतोष सारंग

सिमट रहा झील का आंचल, पक्षी का कलरव भी मद्धिम

—– संतोष सारंग
‘किये न पिअइछी जलवा हे पंडित ज्ञानी
नदिया किनार में गईया मर गइल
त मछली खोदी-खोदी खाई
किये न पिअइछी जलवा हे पंडित ज्ञानी’’

गांव-गंवई के ये बोल जब इन महिलाओं के कंठ से उतरकर पास के चौरों और नदियों के जल से तरंगित होती हैं तो झील का विहार करने वालों का यहां आना सार्थक हो जाता है। नदी, जल, मछली, पक्षी, चौर, झील जैसे शब्द भी यहां के लोक गीतों में पिरोया हुआ है। हम बात कर रहे हैं मिथिलांचल के मनोहारी चौरों-झीलों के मनोरम दृश्यों की, प्रवासी पक्षियों के सुंदर नजारों की, आसपास कलकल बहती नदियों की और इस बीच धिसट-धिसटकर सरकती जिंदगियों की।
यह है ‘कुशेश्वरस्थान पक्षी अभयारण्य’ । यह कई छोटे-छोटे चौरों की एक ऐसी ऋंखला है, जिसे लोग नरांच झील के नाम से भी जानते हैं। यह पक्षी विहार के लिए सर्वोत्तम जगह है। यहां गर्मी की विदाई के साथ मेहमान पक्षियों का आगमन शुरू हो जाता है। खासकर, साइबेरियाई पक्षियों के लिए दरभंगा जिले के कुशेश्वरस्थान प्रखंड का यह इलाका ससुराल से कम नहीं है। बिहार के अन्य प्रमुख झीलों की तरह यहां से विदेशी पक्षियों की रूसवाई पूरी तरह नहीं हुई है। शांत व शीतल जल में हजारों प्रवासी पक्षियों का कतारबदद्घ होकर भोजन व प्रजनन में मगर रहने और तरह-तरह की अदाओं से फिजाओं को गुलजार करने का दृश्य भला किन आंखों को नहीं भायेगा?
दरभंगा मुख्यालय से तकरीबन 45 किलोमीटर का सफर तय कर जब आप बेरि चौक पहुंचेंगे तो ‘कुशेश्वरस्थान पक्षी अभयारण्य’ का इलाका शुरू हो जाता है। निर्माणाधीन दरभंगा-कुशेश्वरस्थान नई रेल लाइन पार करते ही घुमावदार सोलिंग सड़क से होते हुए आगे बढ़ते ही दिखता है ऊबर-खाबड़ जमीन। कहीं जल से भरा तो कहीं सूखे खेत। दूर तक फैले जलकुंभी तो कहीं गेहूं के छोटे-छोटे, हरे-हरे पौधे। किसान मशगुल हैं रबी के फसल को सींचने में, तो बच्चे मशगुल हैं खेलने में। कहीं कुदाल चल रहा है तो कहीं क्रिक्रेट का बल्ला। झील का यह सूखा क्षेा भी कभी पानी से लबालब भरा रहता था, लेकिन पिछले कई सालों से यह झील रूठ गया लगता है। यहां खड़े पीपल के पेड़ गवाह हैं कि कभी इसका तना भी पानी में डूबा रहता था। आखिर इस झील और इसके प्रियतम निर्मल जल को क्या हो गया है? यहां आसपास रहने वाले लोगों को भी इसकी वजह मालूम नहीं।
5-6 चौर मिलकर यह विस्तृत क्षेा नरांच झील कहलाता है। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, 6700 हेक्टेयर क्षेाफल में फैले ये चौर और 1400 हेक्टेयर लो लैंड का यह वृहत क्षेाफल वाला यह इलाका आज भले सिमट गया हो, लेकिन प्रवासी पक्षियों का अतिथि सत्कार कम नहीं हुआ है।
सहरसा जिले के मनगर गांव से सटा महरैला चौर, बिसरिया पंचायत से होकर बहती कमला नदी, विशुनपुर गांव का सुल्तानपुर चौर और कोसी नदी का स्नेह आज भी इस झील को जिंदा रखे हुए है। नाव पर चढ़कर जलकुंभी निकालती ये महिलाएं, घोंघा-सितुआ छानते बच्चे, केकड़ा पकड़ भोजन का जुगाड़ करते लोग और तितली नाम का यह जलीय पौधा। क्या यह सब कम है प्रवासी पक्षियों की मेहमाननवाजी के लिये !
कुशेश्वरस्थान पक्षी अभयारण्य। लगभग 15 दुर्लभ किस्म के प्रवासी पक्षियों का तीर्थ स्थल। लालसर, दिधौंच, मेल, नक्टा, गैरी, गगन, सिल्ली, अधनी, हरियाल, चाहा, करन, रत्वा, गैबर, हसुआ दाग जैसे मेहमान पक्षियों से गुलजार रहने वाला प्रकृति का रमणीक स्थान। जब यहां सैकड़ों-हजारों किलोमीटर दूर नेपाल, तिब्बत, भूटान, अफगानिस्तान, चीन, पाकिस्तान, मंगोलिया, साइबेरिया आदि देशों से ये रंग-बिरंगे पक्षी नवंबर में पहुंचते हैं तो पक्षी व प्रकृति प्रेमियों का मन खिल उठता है। चीड़ीमारों की भी बांछें खिल जाती हैं। रात के अंधेरे में ये चीड़ीमार इनका शिकार करने से नहीं चूकते हैं। हालांकि, कई बार ये पकड़े जाते हैं। झील के आसपास रहने वाले लोग बताते हैं कि अब प्रवासी पक्षियों का आना कम हो गया है । चीड़ीमार पानी में नशीली दवा डालकर पक्षी को बेहोश कर पकड़ लेते हैं। और इसे मारकर बड़े चाव से इसके मांस को खा जाते हैं। यहां के कई लोग इन पक्षियों का शिकार करते पकड़े गये और हवालात पहुंच गये। बहरहाल, पक्षियों का शिकार तो कमा है, लेकिन पानी के सिमटने से झील का आंचल छोटा हो गया है। इसकी पेटी में जहां कभी पानी भरा रहता था, वहां आज रबी फसल उगाये जा रहे हैं। जलीय जीवों, पौधों और मेहमान पक्षियों के घर-आंगन में गेहूं व सरसों के बीज प्रस्फुटित हो रहे हैं। गरमा धान की रोपनी के लिये बिचरा जमाया जा रहा है। पंपिंग सेट और ट्रैक्टर की आहट से मेहमान पक्षी आहत हैं। यहां चल रहे दो-दो पंपिंग सेट यह इंगित करने के लिये काफी हैं कि किस तरह झील और पक्षियों की पीड़ा से अनभिज्ञ किसान शेष बचे पानी को भी सोख लेना चाहते हैं। लिहाजा, इसमें इनका क्या दोषै? इन भोले-भाले किसानों को क्या मालूम कि प्रकृति के लिये पक्षी व जीव-जंतु कितना महत्वपूर्ण है। पर्यावरण के सेहत से इनका क्या सरोकार ? झोपड़ी में अपनी जिंद्गी की रात गुजारने वाले साधनहीन आबादी को पक्षी अभयारण्य की रक्षा का मां किसी ने दिया भी तो नहीं? हालांकि झील व प्रवासी पक्षियों के अस्तित्व को बचाने व लोगों को जागरूक करने के उद्देश्य से कभी यहां ‘रेड कारपेट डे’ मनाया जाता था। बॉटनी के एक प्रोफेसर डॉ एसके वर्मा की पहल पर ये कार्यक्रम दिसंबर में आयोजित होते थे, लेकिन यह सिलसिला कुछ साल चलकर थम गया। उद्घारक की बाट जोहता यह झील धीरे-धीरे वीरानी व उदासी की चादर ओढे चला जा रहा है। फिलवक्त किसी पर्यावरण व पक्षी प्रेमियों की आस में एक बार फिर ये पक्षी दूर-देश से यहां विचरण को आये हैं तो उम्मीद की एक किरण जगती है।
ज्यादा दिन नहीं गुजरे, जब ठंड के मौसम में हजारों प्रवासी पक्षियों का झूंड मन मोह लेता था। पक्षियों के कलरव से लोगों की नींद गायब हो जाती थी। मगर अब वो दिन कहां रहा। प्रकृति का गुस्सा, कोसी-कमला का बदलता मिजाज और चौरों में भर रहे गाद से झील बेहाल है। इसका असर पक्षियों के निवाले पर भी पड़ रहा है। ये फटी धरती और मृत पड़े घोंघा-सितुआ के ये अवशेष इस झील का दर्द बयां करने के लिये काफी हैं।
बताते चलें कि कुशेश्वरस्थान प्रखंड के जलजमाव वाले चौदह गांवों को नैसर्गिक, भूगर्भीय विशेषता और खासकर प्रवासी पक्षियों के लिये अनुकूल वातावरण के लिये इस झील को वाइल्ड लाइफ प्रोटेक्शन एक्ट 1972 (1991 में संशोधित) के तहत ‘कुशेश्वरस्थान पक्षी अभयारण्य’ घोषित किया गया। मिथिलांचल का यह इलाका पर्यटन के लिये भी खास स्थान रखता है। इस खासियत के चलते इस झील को खुशियों के दिन लौटाने होंगे। दुर्लभ किस्म के प्रवासी पक्षियों के मिटते अस्तित्व को बचाना होगा। प्राकृतिक जलस्त्रोतों, यथा-झील, चौर, नदी, नाला, बाबड़ी, पइनों को पुनजिर्वीत करना होगा। अन्यथा, हम अपने सहचर से बेबफाई के लिए दोषी होंगे। और तब हमारी जुबान भी इस गीत को शब्द देने में लड़खड़ायेगी कि
‘किये न पिअइछी जलवा हे पंडित ज्ञानी़़़़़

गंगा को निर्मल रहने दो, गंगा को अविरल बहने दो

  • अनिल प्रकाश

केंद्र की नई सरकार ने गंगा नदी से जुड़ी समस्यािओं पर काम करने का फैसला किया है। तीन.तीन मंत्रालय इस पर सक्रिय हुए हैं। एक बार पहले भी राजीव गांधी के प्रधानमंत्रित्वस काल में गंगा की सफाई की योजना पर बड़े शोर.शराबे के साथ काम शुरू हुआ था। गंगा ऐक्शोन प्लाबन बना। मनमोहन सिंह सरकार ने तो गंगा को राष्ट्री य नदी ही घोषित कर दिया। मनो पहले यह राष्ट्रींय नदी नहीं रही हो। अब तक लगभग बीस हजार करोड़ रुपए खर्च करने के बावजूद गंगा का पानी जगह.जगह पर प्रदूषित और जहरीला बना हुआ है। गंगा का सवाल ऊपर से जितना आसान दिखता हैए वैसा है नहीं। यह बहुत जटिल प्रश्न  है। गहराई में विचार करने पर पता चलता है कि गंगाको निर्मल रखने के लिए देश की कृषिए उद्योगए शहरी विकास तथा पर्यावरण संबंधी नीतियों में मूलभूत परिवर्तन लाने की जरूरत पड़ेगी। यह बहुत आसान नहीं होगा। केवल रिवर फ्रंट बनाकर उसकी सजावट करने का मामला नहीं है।
दरअसलए ष्गंगा को साफ रखनेष् या ष्क्ली न गंगाष् की अवधारणा ही सही नहीं है। सही नारा या अवधारणा यह होनी चाहिए कि ष्गंगा को गंदा मत करोष्। थोड़ी बहुत शुद्धिकरण तो गंगा खुद ही करती है। उसके अंदर स्वसयं शुद्धिकरण की क्षमता है। जहां गांगा का पानी साफ हो वहां से जल लेकर यदि किसी बोतल में रखें तो यह सालों साल सड़ता नहीं है। वैज्ञानिकों ने हैजे के जीवाणुओं को इस पानी में डालकर देखा तो पाया कि चार घंटे के बाद हैजे के जीवाणु नष्टा हो गए थे। अब उस गंगा को कोई साफ करने की बात करे तो इसे नासमझी ही माना जाएगा। अगर कोई यह समझता है कि लोगों के नहाने या कुल्लाज करने से या भैसों के नहाने या गोबर करने से गंगा या अन्या कोई नदी प्रदूषित होती है तो यह ठीक उसी प्रकार हंसने की बात होगी जैसे कोई शहरी आदमी जौ के पौधे को गेहूं का पौधा समझ बैठे या बाजरे के पौधे को मक्काप या गन्नेप का पौधा समझ बैठे। गंगा के संबंध में मोदी सरकार के विभिन्न  मंत्रालयों के अफसर और मंत्रिगण जो घोषणाएं कर रहे हैंए उससे तो ऐसा ही लग रहा है।
कुछ साल पहले आगरा में यमुना नदी में तैर कर नहा रही लगभग 35 भैंसों को पुलिस वाले पकड़कर थाने ले आए थे। और भैंस वालों ने कई दिन बाद बड़ी मुश्किल से भैंसों को थाने से छुड़ाया था। यमुना में जहरीला कचरा बहाने वाले फैक्ट्रीो के मालिक या शहरी मल.जल बहाने वाले म्‍युनिसिपल कॉरपोरेशन के अधिकारी पुलिस के निशाने पर कभी नहीं रहे।
गंगा तथा अन्यह नदियों के प्रदूषित और जहरीला होने का सबसे बड़ा कारण है कल.कारखानों के जहरीले रसायनों का नदी में बिना रोकटोक के गिराया जाना। उद्योगपतियों के प्रतिनिधि बताते हैं कि गंगा के प्रदूषण में इंडस्ट्री यल एफ्लूएंट सिर्फ आठ प्रतिशत जिम्मेबदार है। यह आंकड़ा विश्वाास करने योग्यर नहीं है। दूसरे बात यह कि जब कल कारखानों या थर्मल पावर स्टेेशनों का गर्म पानी तथा जहरीला रसायन या काला या रंगीन एफ्लूएंट नदी में जाता हैए तो नदी के पानी को जहरीला बनाने के साथ.साथ नदी के स्वीयं शुद्धिकरण की क्षमता को नष्टल कर देता है। नदी में बहुत से सूक्ष्मव वनस्प्ति होते हैं जो सूरज की रोशनी में प्रकाश संश्लेनषण की क्रिया द्वारा अपना भोजन बनाते हैंए गंदगी को सोखकर ऑक्सी जन मुक्तअ करते हैं।
इसी प्रकार बहुतेरे जीव जन्तुक भी सफाई करते रहते हैं। लेकिन उद्योगों के प्रदूषण के कारण गंगा में तथा अन्यत नदियों में भी जगह.जगह डेड जोन बन गए हैं। कहीं आधा किलोमीटरए कहीं एक किलोमीटर तो कही दो किलोमीटर के डेड जोन मिलते हैं। यहां से गुजरने वाला कोई जीव.जन्तुे या वनस्पंति जीवित नहीं बचता। क्याज उद्योगोंए बिजलीघरों का गर्म पानी जहरीला कचरे को नदी में बहाने पर सख्तीव से रोक लगेगीघ् क्याक प्रदूषण के लिए जिम्मे‍दार उद्योगों के मालिकोंए बिजलीघरों के बड़े अधिकारियों को जेल भेजने के लिए सख्तं कानून बनेंगे और उसे मुस्तैरदी से लागू किया जाएगा। अगर ऐसा नहीं हुआ तो गंगा निर्मल कैसे रहेगीघ्
गंगा के तथा अन्यम नदियों के प्रदूषण का बड़ा कारण है खेती में रसायनिक खादों और जहरीले कीटनाशकों का प्रयोग। ये रसायन बरसात के समय बहकर नदी में पहुंच जाते हैं तथा जीव जन्तुबओं तथा वनस्पसतियों को नष्टच करके नदी की पारिस्थंतिकी को बिगाड़ देते हैं। इसलिए नदियों को प्रदूषण मुक्तत रखने के लिए इन रासायनिक खादों तथा कीटनाशकों पर दी जाने वाली भारी सब्सिडी को बंद करके पूरी राशि जैविक खाद तथा जैविक कीटनाशकों का प्रयोग करने वाले किसानों को देनी पड़ेगी। और अंततरू रासायनिक उर्वरकों एवं कीटनाशकों पर पूर्ण रोक लगानी पड़ेगी।
जैविक खेती में उत्पाोदकता का कम नहीं होती हैए बल्कि अनाजए सब्जीक तथा फल भी जहर मुक्त  और स्वालस्य्को वर्द्धक होते हैं। इसमें सिंचाई के लिए पानी की खपत भी बहुत घटती है और खेती की लागत घटने से मुनाफा भी बढ़ाता है। अगर इस पर कड़ा फैसला लिया गया तभी नदियों को साफ रखा जा सकेगा।
शहरों के सीवर तथा नालों से बहने वाले एफ्लूएंट को ट्रीट करके साफ पानी नदी में गिराने के लिए बहुत बातें हो चुकी हैं। केवल गंगा के बगल के क्लांसदृ1 के 36 शहरों में प्रतिदिन 2ए601ण्3 एमएलडी गंदा पानी निकलता हैए जिसका मात्र 46 प्रतिशत ही साफ करके नदी में गिराया जाता है।
क्लायसदृ2 के 14 शहरों से प्रतिदिन 122 एमएलडी एफ्लूएंट निकलता है। जिसका मात्र 13 प्रतिशत ही साफ करके गिराया जाता है। गंगा के किनारे के कस्बों  तथा छोटे शहरों के प्रदूषण की तो सरकार चर्चा भी नहीं करती। शहरी मलजल तथा कचरा ऐसी चीजें हैंए जिसे सोना बनाया जा सकता है। देश के कुछ शहरों में इस कचरे से खाद बनाई जाती है और पानी को साफ करके खेतों की सिंचाई के काम में लगाया जाता है। ऐसा प्रयोग गंगा तथा अन्यं नदियों के सभी शहरों.कस्बोंज में किया जा सकता है। अब तक यह मामला टलता रहा है। इसमें भी मुस्तै दी की सख्तीह से जरूरत है। प्रधानमंत्री के संसदीय क्षेत्र वाराणसी में वरुणा नदी गंगा में मिलती है। वरुणा शहर की सारी गंदगी गंगा में डालती है। क्यां प्रधानमंत्री का ध्यागन इस पर गया हैघ् अगर न देखा हो तो जाकर देख लें।
गंगा या अन्य  नदियों पर नीति बनाने और उसके क्रियान्व‍यन से पहले उन करोड़ों करोड़ लोगों की ओर नजर डालना जरूरी हैए जिनकी जीविका और जिनका सामाजिक सांस्कृओतिक जीवन इनसे जुड़ा है। गंगा पर विचार के साथ.साथ गंगा में मिलने वाली सहायक नदियों के बारे में विचार करना जरूरी है। आठ राज्योंं की नदियों का पानी प्रत्य क्ष या अप्रत्यकक्ष रूप से गंगा में मिलता है। इन नदियों में होने वाले प्रदूषण का असर भी गंगा पर पड़ता है। गंगा पर शुरू में ही टिहरी में तथा अन्यक स्था नों पर बांध और बराज बना दिए गए। इससे गंगा के जल प्रवाह में भारी कमी आयी है। गंगा के प्रदूषण का यह भी बहुत बड़ा कारण है। बांधों और बराजों के कारण नदी की स्वायभाविक उड़ाही ;डी.सिल्टिंगद्ध की प्रक्रिया रुकी है। गाद का जमाव बढ़ने से नदी की गहराई घटती गई है और बाढ़ तथा कटाव का प्रकोप भयावह होता गया है। यह नहीं भूलना चाहिए कि गंगा में आने वाले पानी का लगभग आधा नेपाल के हिमालय क्षेत्र की नदियों से आता है। हिमायल में हर साल लगभग एक हजार भूकंप के झटके रिकॉर्ड किये जाते हैं। इन झटकों के कारण हिमालय में भूस्खेलन होता रहता है। बरसात में यह मिट्टी बहकर नदियों के माध्यसम से खेतोंए मैदानों तथा गंगा में आता है। हर साल खरबों टन मिट्टी आती है। इसी मिट्टी से गंगा के मैदानों का निर्माण हुआ है। यह प्रक्रिया जारी है और आगे भी जारी रहेगी।
1971 में पश्चिम बंगाल में फरक्काह बराज बना और 1975 में उसकी कमीशनिंग हुई। जब यह बराज नहीं था तो हर साल बरसात के तेज पानी की धारा के कारण 150 से 200 फीट गहराई तक प्राकृतिक रूप से गंगा नदी की उड़ाही हो जाती थी। जब से फरक्काट बराज बना सिल्टग की उड़ाही की यह प्रक्रिया रुक गई और नदी का तल ऊपर उठता गया। सहायक नदियां भी बुरी तरह प्रभावित हुईं। जब नदी की गहराई कम होती है तो पानी फैलता है और कटाव तथा बाढ़ के प्रकोप की तीव्रता को बढ़ाता जाता है। मालदह.फरक्काो से लेकर बिहार के छपरा तक यहां तक कि बनारस तक भी इसका दुष्प्र्भाव दिखता है।
फरक्काह बराज के कारण समुद्र से मछलियों की आवाजाही रुक गइ। फीश लैडर बालू.मिट्टी से भर गया। झींगा जैसी मछलियों की ब्रीडिंग समुद्र के खारे पानी में होती हैए जबकि हिलसा जैसी मछलियों का प्रजनन ऋषिकेष के ठंडे मीठे पानी में होता है। अब यह सब प्रक्रिया रुक गई तथा गंगा तथा उसकी सहायक नदियों में 80 प्रतिशत मछलियां समाप्ता हो गई। इससे भोजन में प्रोटीन की कमी हो गई। पश्चिम बंगालए बिहार और उत्तनर प्रदेश में अब रोजाना आंध्र प्रदेश से मछली आती है। इसके साथ ही मछली से जीविका चलाकर भरपेट भोजन पाने वाले लाखों.लाख मछुआरों के रोजगार समाप्तट हो गए।
इसलिए जब गडकरी साहब ने गंगा में हर 100 किलोमीटर की दूरी पर बराज बनाने की बात शुरू कीए तब गंगा पर जीने वाले करोड़ों लोगों में घबराहट फैलने लगी है। गंगा की उड़ाही की बात तो ठीक हैए लेकिन बराजों की श्रृंखला खड़ी करके गंगा की प्राकृतिक उड़ाही की प्रक्रिया को बाधित करना सूझबूझ की बात नहीं है। इस पर सरकार को पुनर्विचार करना चाहिए। नहीं तो सरकार को जनता के भारी विरोध का सामना करना पड़ेगा और लेने के देने पड़ जाएंगे। आज से 32 साल पहले 1982 में कहलगांव ;जिला दृ भागलपुर क्ष्बिहारद्वद्ध से गंगा मुक्ति आंदोलन की शुरुआत हुई थी। जन प्रतिरोध के कारण 1990 आते.आते गंगा में चल रही जमींदारी और पूरे बिहार के 500 किलोमीटर गंगा क्षेत्र तथा बिहार की सभी नदियों में मछुआरों के लिए मछली पकड़ना कर मुक्त  कर दिया गया था। गंगा मुक्ति आंदोलन ने ऊपर वर्णित सवालों को लगातार उठाया और लाखों लाख लोग उसमें सक्रिय हुए थे। आज भी वह आग बुझी नहीं है। आग अंदर से सुलग रही है। गंगा के नाम पर गलत नीतियां अपनाई गई तो बंगालए बिहार और उत्तपर प्रदेश में यह ठंडी आग फिर से लपट बन सकती है।

शुक्रवार, 24 अगस्त 2012

बिहार को बहुत मंहगा पड़ेगा नदी जोड़


लगता है कि तटबंध निर्माण की सजा भुगत रहा बिहार अपनी गलतियों से कुछ सीखने को तैयार नहीं है। ताजा परिदृश्य पूर्णतया विरोधाभासी है। नीतीश सरकार ने एक ओर आहर-पाइन की परंपरागत सिंचाई प्रणाली के पुनरुद्धार का एक अच्छा काम हाथ में लिया है, तो दूसरी ओर नदी जोड़ को आगे बढ़ाने का निर्णय कर वह बिगाड़ की राह पर भी चल निकली है। प्रदेश के जलसंसाधन मंत्री का दावा है कि नदी जोड़ की इन परियोजनाओं के जरिए नदी के पानी में अचानक बहाव बढ़ जाने पर सामान्य से अधिक पानी को दूसरी नदी में भेजकर समस्या से निजात पाया जा सकेगा। वह भूल गए है कि तटबंधों को बनाते वक्त भी इंजीनियरों ने हमारे राजनेताओं को इसी तरह आश्वस्त किया था। उसका खामियाजा बिहार आज तक भुगत रहा है। जैसे-जैसे तटबंधों की लंबाई बढ़ी, वैसे-वैसे बिहार में बाढ़ का क्षेत्र और उससे होने वाली बर्बादी भी बढ़ती गई। बर्बादी के इस दौर ने बिहार में सिंचाई की शानदार आहर-पइन प्रणाली का मजबूत तंत्र भी ध्वस्त किया। परिणाम हम सभी ने देखे। आगे चलकर जलजमाव, रिसाव, बंजर भूमि, कर्ज, मंहगी सिंचाई और घटती उत्पादकता के रूप में नदी जोड़ का खामियाजा भी बिहार भुगतेगा।


आगे बढ़ाये चार प्रस्ताव


उल्लेखनीय है कि राज्य ने निर्णय ले लिया है। राज्य के जलसंसाधन विभाग में इसके लिए विशेषज्ञों की एक टीम भी गठित कर दी गई है। टीम ने प्रथम चरण में 790 करोड़ की लागत के चार परियोजनाओं पर काम करने का प्रस्ताव किया है। राज्य के जलसंसाधन मंत्री ने होशियारी दिखाते हुए राष्ट्रपति चुनाव से पहले केंद्रीय जलसंसाधन मंत्री से इन पर बात भी कर ली है। फिलहाल इन प्रस्तावों को लेकर बिहार सरकार को योजना आयोग की मंजूरी का इंतजार है। इन चार प्रस्तावों के नाम, जल स्थानान्तरण क्षमता और लागत निम्नानुसार है: 

1. बूढ़ी गंडक-नून-बाया-गंगा लिंक
300 क्यूमेक और 407.33 करोड़।

2. कोहरा-चंद्रावत लिंक
( बूढ़ी गंडक का पानी गंडक में) 
80 क्यूमेक और 168.86 करोड़।

3. बागमती-बूढ़ी गंडक लिंक
( बागमती-बूढ़ी गंडक का पानी बेलवाधार में) 
500 क्यूमेक और 125.96 करोड़।

4. कोसी-गंगा लिंक
88.93 करोड़


सेम बढ़ेगा-उत्पादकता घटेगी


समझने की जरूरत है कि नदी जोड़ के नुकसान क्या हैं? बात एकदम सीधी सी है; पर न मालूम क्यों हमारे कर्णधारों को समझ नहीं आ रही। हम सभी जानते हैं कि नदी जोड़ परियोजना नहरों पर आधारित है। बिहार का गंगा घाटी क्षेत्र का ढाल सपाट है। नहरें वर्षा के प्रवाह के मार्ग में रोड़ अटकायेंगी ही। इससे बड़े पैमाने पर सेम की समस्या सामने आयेगी। सेम यानी जलजमाव। सेम से जमीनें बंजर होंगी और उत्पादकता घटेगी। इसके अलावा नहरों में स्रोत से खेत तक पहुंचने में 50 से 70 फीसदी तक होने वाले रिसाव के आंकड़े पानी की बर्बादी बढ़ायेंगे। समस्या को बद से बदतर बनायेंगे। गंगा घाटी की बलुआही मिट्टी इस काम को और आसान बनायेगी। बिहार के नदी व नहरी क्षेत्र के अनुभवों से इसे सहज ही समझा जा सकता है।


नहर टूटने के खतरे


बिहार में नहरों और तटबंधों के टूटने की घटनायें आम हैं। तिरहुत, सारण, सोन, पूर्वी कोसी। बरसात में बाढ़ आयेगी ही और हर साल नहरें टूटेंगी ही। नहरों का जितना जाल फैलेगा, समस्या उतनी विकराल होगी।


बहुत मंहगा पड़ेगा नदी जोड़


बाढ़ में अतिरिक्त पानी को लेकर समझने की बात यह है कि उत्तर बिहार से होकर जितना पानी गुजरता है, उसमें मात्र 19 प्रतिशत ही स्थानीय बारिश का परिणाम होता है। शेष 81 प्रतिशत भारत के दूसरे राज्यों तथा नेपाल से आता है। गंगा में बहने वाले कुल पानी का मात्र तीन प्रतिशत ही बिहार में बरसी बारिश का होता है। अतः ब्रह्मपुत्र-गंगा घाटी क्षेत्र में नदी जोड़ का मतलब है नेपाल में बांध। उसके बगैर पानी की मात्रा नियंत्रित नहीं की जा सकती। बांधों को लेकर दूसरे सौ बवाल है, सो अलग; इधर नेपाल ने प्रस्तावित बांधों से होने वाली सिंचाई से धनवसूली की मंशा पहले ही जाहिर कर दी है। लालू यादव ने मई, 2003 में कहा ही था- “पानी हमरा पेट्रोल है।” इस नजरिए से बहुत मंहगी पड़ेगी नदी जोड़ के रास्ते आई सिंचाई। यूं भी नदी जोड़ की प्रस्तावित लागत आगे और बढ़ने ही वाली है। इसके क्रियान्वयन में निजी कंपनियों का प्रवेश भी होगा ही। वे आये दिन किसानों की जेब खाली कराने से कभी नहीं चूकेंगी। सस्ता नहीं सौदा नदी जोड़ का।


बाढ़ के साथ जीने का उपायों की जरूरत

बिहार की बाढ़ को लेकर चर्चा कोई पहली बार नहीं है। यह कई बार कहा जा चुका है कि बाढ़ को पूरी तरह नियंत्रित करना न संभव है और न किया जाना चाहिए। बाढ़ के अपने फायदे हैं और अपने नुकसान। जरूरत है, तो सिर्फ बाढ़ प्रवाह की तीव्रता को कम करने वाले उपायों की। नदियों में बढ़ती गाद को नियंत्रित करने की। तटबंधो पर पुनर्विचार करने की। बिहार की बाढ़ का ज्यादातर पानी नेपाल की देन है। मध्यमार्गी होकर उसका रास्ता नेपाल से बात करके ही निकाला जा सकता है। लेकिन हमारी नदियों के जलग्रहण क्षेत्र में जलसंचयन ढांचे व सघन वनों की समृद्धि तथा जलप्रवाह मार्ग को बाधामुक्त करने जैसे उपायों से कम से कम वर्षाजल के जरिए आने वाले अतिरिक्त जल को धरती के पेट में बैठाया ही जा सकता है। 

साथ ही जरूरत है कि बाढ़ क्षेत्रों में ऐसे उपाय करने की, ताकि लोग बाढ़ के साथ जी सकें। बाढ़ क्षेत्रों के लिए मार्च अंत में बोकर बारिश आते-आते काट ली जाने वाली धान की किस्में उपलब्ध हैं। खरीफ फसलों पर और काम करने की जरूरत है। बाढ़ क्षेत्रों में रबी के भी अच्छे प्रयोग हुए हैं। उन्हें लोगों तक पहुंचाने के लिए वित्तीय प्रावधान, ईमानदारी व इच्छाशक्ति चाहिए। बाढ़रोधी घर, पेयजल के लिए ऊंचे हैंडपम्प, शौच-स्वच्छता का समुचित प्रबंध तथा पशुओं के लिए चारा-औषधियां। छोटे बच्चों के इलाज का खास इंतजाम व एहतियात की। जरूरत है कि बाढ़ के समय के साथ-साथ हम अपने कामकाज के वार्षिक कैलेंडर को बदलें। डाकघर-दवाखाना-बैंक-एटीएम-बाजार आदि जैसी रोजमर्रा की जरूरतों की मोबाइल व्यवस्था करें। सुंदरवन में यूनाइटेड बैंक नौका शाखा के जरिए अपनी सेवायें देता है।

आवश्यकता अविष्कार की जननी होती है। सोच बदले, तो दिशा बदले। बिहार में यदि सचमुच सुशासन है, तो वह इसी का परिणाम है। जरूरत है बिहार के इंजीनियर मुख्यमंत्री को बिहार की बाढ़ पर ठेकेदार प्रस्तावित परियोजनाओं की सोच से उबरने की। क्या वह उबरेंगे? फिलहाल प्रस्तावित चार परियोजनाओं का संकेत ठीक इसके विपरीत है। आप क्या सोचते हैं? अपनी आवाज बिहार सरकार तक पहुंचायें। हमे इंतजार रहेगा। हो सकता है कि सरकार चेत जाये तथा बिहार एक और नुकसानदेह परियोजना का खामियाजा भुगतने से बच जाये।

मंगलवार, 7 अगस्त 2012

जनता की पंचायत

मीरा सहनी और खुशबू कुमारी को बलात्काकरियों ने मार डाला


9 अगस्‍त 2012 – 11 बजे दिन से गायघाट प्रखंड मुख्‍यालय के निकट

भाइयों एवं बहनों,
19 मई 2012 की रात में धनौर गांव, थाना कटरा, जिला मुजफ्फरपुर की स्‍वयं सहायता समूह की संयोजिका मीरा सहनी को फोन पर बताया गया कि उसका बेटा, जो यज्ञ देखने गया था, एक बगीचे में बेहोश पड़ा है। वह दौड़ी हुई सुनसान बगीचे की ओर पहुंची। पहले से घात लगाये उसी गांव के दुष्‍कर्मी उसे पकड़कर चौर में ले गये। जहां लगभग एक दर्जन सफेदपोश लफंगों ने उसके साथ जबर्दस्‍ती की और विरोध करने पर मार-मार कर बेहोश कर दिया। उसके पूरे शरीर को दांतों से नोचा-खसोटा गया। मरणासन्‍न हालत में उसे गांव में लाकर फेंकने ही वाले थे कि लोगों ने देख लिया। हल्‍ला होने पर दुष्‍कर्मी भाग गये।
   गांव वालों ने उसे कटरा अस्‍पताल पहुंचाया। थोड़ी देर बाद उसे रेफर करके अस्‍पताल के एम्‍बुलेंस से श्रीकृष्‍ण मेडिकल कॉलेज, मुजफ्फरपुर भेज दिया गया। कटरा अस्‍पताल के डॉ. अनिल सिंह ने पुलिस को सूचना देना तक उचित नहीं समझा जो कि उनकी कानूनी जिम्‍मेवारी थी। मुजफ्फरपुर मेडिकल कॉलेज में मीरा 20 मई 2012 को 11 बजे दिन तक थी। वहां से उसे रेफर करके पटना मेडिकल कॉलेज भेज दिया गया। दुष्‍कर्मियों के समर्थकों ने डॉक्‍टरों एवं अधिकारियों को भी मिला लिया था, इसलिए उन्‍होंने पुलिस को सूचित नहीं करवाया। 20 मई की शाम 4 बजे मीरा की बहन और बहनोई ने उसे पटना मेडिकल कॉलेज में भर्ती करवाया। वहां 23 मई की रात 8.30 बजे उसकी मृत्‍यु हो गई। बलात्‍कारियों- हत्‍यारों के हाथ इतने लंबे हैं कि पटना मेडिकल कॉलेज के अधिकारियों ने भी पुलिस को सूचित नहीं किया और बिना पोस्‍टमार्टम के लाश को अस्‍पताल से बाहर करने की कोशिश करने लगे। मीरा के परिजनों के विरोध के कारण 24 मई की सुबह तक लाश वहीं पर पड़ी रही। इस बीच मीरा का पति कलकत्‍ता से आ गया था। उसने कुछ सामाजिक व राजनीतिक कार्यकर्ताओं को फोन करके मदद की गुहार लगाई। पत्रकारों, महिला संगठनों को पता चला। अंतत: सेवानिवृत्‍त डीजीपी रामचन्‍द्र खान के हस्‍तक्षेप के बाद पटना के पीरबहोर थाना के थानाध्‍यक्ष ने पीएमसीएच पहुंच कर एफआईआर दर्ज किया। उसके बाद पोस्‍टमार्टम हो सका।
   अभी वेजाइनल विसरा की फॉरेंसिक जांच की रिपोर्ट आई भी नहीं, लेकिन अखबारों में छपवा दिया गया कि मीरा के साथ बलात्‍कार हुआ ही नहीं था। धनौर गांव के सभी जातियों के अधिकांश लोग बताते हैं कि मीरा के साथ अत्‍याचार हुआ है और इस घटना में लिप्‍त सफेदपोश अपराधी अपनी जाति की गरीब लड़कियों के साथ भी छेड़खानी और जबर्दस्‍ती करने से बाज नहीं आते। घटना के लगभग ढाई महीने से ज्‍यादा बीतने के बावजूद इस कांड में लिप्‍त अपराधी छुट्टा घूम रहे हैं। उनको अपने राजनीतिक आकाओं का संरक्षण प्राप्‍त है। मीरा के पति छोटे सहनी को धन का प्रलोभन और धमकी देकर चुप कराने की असफल कोशिश हुई है।
  यही कारण है कि इलाके भर के दुष्‍कर्मियों का मन बढ़ गया। 12 जुलाई 2012 की रात 7-8 बजे कोपी गांव की 9वीं क्‍लास की 14 वर्षीय छात्रा खुशबू कुमार (पिता रविंद्र सिंह) शौच के लिए नदी किनारे गई थी। वहीं दुष्‍कर्मियों ने उसे दबोच लिया। उसके साथ दुष्‍कर्म किया और बात छिपाने के लिए उसे भी जान से मार डाला।
  मीरा सहनी बलात्‍कार हत्‍याकांड के अपराधी के भतीजे खुशबू के बलात्‍कार-हत्‍या में शामिल थे। ये कुकर्मी खुशबू की ही जाति के थे। पुलिस प्रशासन की ढिलाई के परिणामस्‍वरूप इस केस में एक कुकर्मी की गिरफ्तारी तो हुई लेकिन अन्‍य सभी छुट्टा घूम रहे हैं। 26 जुलाई 2012 की रात में कुकर्मियों ने इस मामले के गवाहों को बुरी तरह पीटा।
   इस इलाके में इस प्रकार की घटनाएं घटती रहती हैं। दुष्‍कर्मी गरीब और कमजोर लड़कियों और महिलाओं के साथ बदमाशी करने से भी बाज नहीं आते।
   हम और आप कब तक चुप बैठे रहेंगे। आइए इस प्रवृत्ति का विरोध कीजिए। हम सब मिलकर पुलिस, प्रशासन और सरकार पर दबाव डालें कि बलात्‍कारियों और हत्‍यारों पर सख्‍त कारवाई की जाए। हमारा समाज जगे और महिलाओं के साथ सम्‍मान व बाराबरी के व्‍यवहार की संस्‍कृति मजबूत हो। समाज की कोई लड़की या औरत असुरक्षित न रहे।
  क्‍या आप इस अत्‍याचार पर मौन साधे रहेंगे। आइए इस जुल्‍म का विरोध कीजिए। सभी जनपक्षी संगठनों, पार्टियों तथा संवेदनशील स्‍त्री-पुरुषों से अपील है कि इस सत्‍याग्रह में शामिल होकर अपना फर्ज निभाइए। गांव से आने वाले सभी साथी अपना भोजन – चूड़ा, सत्‍तू, रोटी साथ लाएं तथा अपने खर्च से आएं।
बाहर से आने वाले अतिथि -
रामचंद्र खान (पूर्व डीजीपी), अनिल प्रकाश, डॉ. कुमार गणेश, डॉ. इन्‍दु भारती, शाहिना परवीन, निभा सिन्‍हा – 9835450544, अख्‍तरी बेगम – 9430559191, कंचन बाला, अशर्फी सदा, अरविंद निषाद, सुजीत कुमार वर्मा, अशोक क्रांति (सभी पटना से), गौतम (भागलपुर से)

निवेदक
दिनेश कुमार - 9631670544, अजय कुमार, रामू, सुनील सिंह (गाय घाट), छोटे सहनीख्‍ विमल सहनी, किरण सिन्‍हा, लक्ष्‍मी, पार्वती, रिंकू, खुशबू, बेबी, अजित चौधरी, रॉबिन रंगकर्मी, जितेंद्र चौधरी, अनिल ि‍द्वेदी -9135182766, डॉ. भूषण ठाकुर, रामपुकार सहनी, रामबाबू, आनंद पटेल – 9939898304, डॉ. हेमनारायण विश्‍वकर्मा, सुनील कुमार, राजेश्‍वर साह।

महिला संघर्ष मोर्चा, अपराजिता (महिला जनप्रतिनिधि संगठन), वामा, जनमंच