—– संतोष सारंग
‘किये न पिअइछी जलवा हे पंडित ज्ञानीनदिया किनार में गईया मर गइल
त मछली खोदी-खोदी खाई
किये न पिअइछी जलवा हे पंडित ज्ञानी’’
गांव-गंवई के ये बोल जब इन महिलाओं के कंठ से उतरकर पास के चौरों और नदियों के जल से तरंगित होती हैं तो झील का विहार करने वालों का यहां आना सार्थक हो जाता है। नदी, जल, मछली, पक्षी, चौर, झील जैसे शब्द भी यहां के लोक गीतों में पिरोया हुआ है। हम बात कर रहे हैं मिथिलांचल के मनोहारी चौरों-झीलों के मनोरम दृश्यों की, प्रवासी पक्षियों के सुंदर नजारों की, आसपास कलकल बहती नदियों की और इस बीच धिसट-धिसटकर सरकती जिंदगियों की।
यह है ‘कुशेश्वरस्थान पक्षी अभयारण्य’ । यह कई छोटे-छोटे चौरों की एक ऐसी ऋंखला है, जिसे लोग नरांच झील के नाम से भी जानते हैं। यह पक्षी विहार के लिए सर्वोत्तम जगह है। यहां गर्मी की विदाई के साथ मेहमान पक्षियों का आगमन शुरू हो जाता है। खासकर, साइबेरियाई पक्षियों के लिए दरभंगा जिले के कुशेश्वरस्थान प्रखंड का यह इलाका ससुराल से कम नहीं है। बिहार के अन्य प्रमुख झीलों की तरह यहां से विदेशी पक्षियों की रूसवाई पूरी तरह नहीं हुई है। शांत व शीतल जल में हजारों प्रवासी पक्षियों का कतारबदद्घ होकर भोजन व प्रजनन में मगर रहने और तरह-तरह की अदाओं से फिजाओं को गुलजार करने का दृश्य भला किन आंखों को नहीं भायेगा?
दरभंगा मुख्यालय से तकरीबन 45 किलोमीटर का सफर तय कर जब आप बेरि चौक पहुंचेंगे तो ‘कुशेश्वरस्थान पक्षी अभयारण्य’ का इलाका शुरू हो जाता है। निर्माणाधीन दरभंगा-कुशेश्वरस्थान नई रेल लाइन पार करते ही घुमावदार सोलिंग सड़क से होते हुए आगे बढ़ते ही दिखता है ऊबर-खाबड़ जमीन। कहीं जल से भरा तो कहीं सूखे खेत। दूर तक फैले जलकुंभी तो कहीं गेहूं के छोटे-छोटे, हरे-हरे पौधे। किसान मशगुल हैं रबी के फसल को सींचने में, तो बच्चे मशगुल हैं खेलने में। कहीं कुदाल चल रहा है तो कहीं क्रिक्रेट का बल्ला। झील का यह सूखा क्षेा भी कभी पानी से लबालब भरा रहता था, लेकिन पिछले कई सालों से यह झील रूठ गया लगता है। यहां खड़े पीपल के पेड़ गवाह हैं कि कभी इसका तना भी पानी में डूबा रहता था। आखिर इस झील और इसके प्रियतम निर्मल जल को क्या हो गया है? यहां आसपास रहने वाले लोगों को भी इसकी वजह मालूम नहीं।
5-6 चौर मिलकर यह विस्तृत क्षेा नरांच झील कहलाता है। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, 6700 हेक्टेयर क्षेाफल में फैले ये चौर और 1400 हेक्टेयर लो लैंड का यह वृहत क्षेाफल वाला यह इलाका आज भले सिमट गया हो, लेकिन प्रवासी पक्षियों का अतिथि सत्कार कम नहीं हुआ है।
सहरसा जिले के मनगर गांव से सटा महरैला चौर, बिसरिया पंचायत से होकर बहती कमला नदी, विशुनपुर गांव का सुल्तानपुर चौर और कोसी नदी का स्नेह आज भी इस झील को जिंदा रखे हुए है। नाव पर चढ़कर जलकुंभी निकालती ये महिलाएं, घोंघा-सितुआ छानते बच्चे, केकड़ा पकड़ भोजन का जुगाड़ करते लोग और तितली नाम का यह जलीय पौधा। क्या यह सब कम है प्रवासी पक्षियों की मेहमाननवाजी के लिये !
कुशेश्वरस्थान पक्षी अभयारण्य। लगभग 15 दुर्लभ किस्म के प्रवासी पक्षियों का तीर्थ स्थल। लालसर, दिधौंच, मेल, नक्टा, गैरी, गगन, सिल्ली, अधनी, हरियाल, चाहा, करन, रत्वा, गैबर, हसुआ दाग जैसे मेहमान पक्षियों से गुलजार रहने वाला प्रकृति का रमणीक स्थान। जब यहां सैकड़ों-हजारों किलोमीटर दूर नेपाल, तिब्बत, भूटान, अफगानिस्तान, चीन, पाकिस्तान, मंगोलिया, साइबेरिया आदि देशों से ये रंग-बिरंगे पक्षी नवंबर में पहुंचते हैं तो पक्षी व प्रकृति प्रेमियों का मन खिल उठता है। चीड़ीमारों की भी बांछें खिल जाती हैं। रात के अंधेरे में ये चीड़ीमार इनका शिकार करने से नहीं चूकते हैं। हालांकि, कई बार ये पकड़े जाते हैं। झील के आसपास रहने वाले लोग बताते हैं कि अब प्रवासी पक्षियों का आना कम हो गया है । चीड़ीमार पानी में नशीली दवा डालकर पक्षी को बेहोश कर पकड़ लेते हैं। और इसे मारकर बड़े चाव से इसके मांस को खा जाते हैं। यहां के कई लोग इन पक्षियों का शिकार करते पकड़े गये और हवालात पहुंच गये। बहरहाल, पक्षियों का शिकार तो कमा है, लेकिन पानी के सिमटने से झील का आंचल छोटा हो गया है। इसकी पेटी में जहां कभी पानी भरा रहता था, वहां आज रबी फसल उगाये जा रहे हैं। जलीय जीवों, पौधों और मेहमान पक्षियों के घर-आंगन में गेहूं व सरसों के बीज प्रस्फुटित हो रहे हैं। गरमा धान की रोपनी के लिये बिचरा जमाया जा रहा है। पंपिंग सेट और ट्रैक्टर की आहट से मेहमान पक्षी आहत हैं। यहां चल रहे दो-दो पंपिंग सेट यह इंगित करने के लिये काफी हैं कि किस तरह झील और पक्षियों की पीड़ा से अनभिज्ञ किसान शेष बचे पानी को भी सोख लेना चाहते हैं। लिहाजा, इसमें इनका क्या दोषै? इन भोले-भाले किसानों को क्या मालूम कि प्रकृति के लिये पक्षी व जीव-जंतु कितना महत्वपूर्ण है। पर्यावरण के सेहत से इनका क्या सरोकार ? झोपड़ी में अपनी जिंद्गी की रात गुजारने वाले साधनहीन आबादी को पक्षी अभयारण्य की रक्षा का मां किसी ने दिया भी तो नहीं? हालांकि झील व प्रवासी पक्षियों के अस्तित्व को बचाने व लोगों को जागरूक करने के उद्देश्य से कभी यहां ‘रेड कारपेट डे’ मनाया जाता था। बॉटनी के एक प्रोफेसर डॉ एसके वर्मा की पहल पर ये कार्यक्रम दिसंबर में आयोजित होते थे, लेकिन यह सिलसिला कुछ साल चलकर थम गया। उद्घारक की बाट जोहता यह झील धीरे-धीरे वीरानी व उदासी की चादर ओढे चला जा रहा है। फिलवक्त किसी पर्यावरण व पक्षी प्रेमियों की आस में एक बार फिर ये पक्षी दूर-देश से यहां विचरण को आये हैं तो उम्मीद की एक किरण जगती है।
ज्यादा दिन नहीं गुजरे, जब ठंड के मौसम में हजारों प्रवासी पक्षियों का झूंड मन मोह लेता था। पक्षियों के कलरव से लोगों की नींद गायब हो जाती थी। मगर अब वो दिन कहां रहा। प्रकृति का गुस्सा, कोसी-कमला का बदलता मिजाज और चौरों में भर रहे गाद से झील बेहाल है। इसका असर पक्षियों के निवाले पर भी पड़ रहा है। ये फटी धरती और मृत पड़े घोंघा-सितुआ के ये अवशेष इस झील का दर्द बयां करने के लिये काफी हैं।
बताते चलें कि कुशेश्वरस्थान प्रखंड के जलजमाव वाले चौदह गांवों को नैसर्गिक, भूगर्भीय विशेषता और खासकर प्रवासी पक्षियों के लिये अनुकूल वातावरण के लिये इस झील को वाइल्ड लाइफ प्रोटेक्शन एक्ट 1972 (1991 में संशोधित) के तहत ‘कुशेश्वरस्थान पक्षी अभयारण्य’ घोषित किया गया। मिथिलांचल का यह इलाका पर्यटन के लिये भी खास स्थान रखता है। इस खासियत के चलते इस झील को खुशियों के दिन लौटाने होंगे। दुर्लभ किस्म के प्रवासी पक्षियों के मिटते अस्तित्व को बचाना होगा। प्राकृतिक जलस्त्रोतों, यथा-झील, चौर, नदी, नाला, बाबड़ी, पइनों को पुनजिर्वीत करना होगा। अन्यथा, हम अपने सहचर से बेबफाई के लिए दोषी होंगे। और तब हमारी जुबान भी इस गीत को शब्द देने में लड़खड़ायेगी कि
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