गुरुवार, 1 अप्रैल 2021

सोना उगलती जैविक खेती

  • अनिल प्रकाश 

उत्तर बिहार के अनेक युवा किसानों ने अपने खेतों में सोना उपजाया। उनके गेहूं की बालियां पहले से बड़ी थीं । अमूमन एक बाली में 42 से 52 दाने रहते हैं, इस बार 72 से 82 दाने थे। दाने भी काफी पुष्ट। एक एकड़ खेत में 26 क्विंटल 40 किलोग्राम तक गेहूं की उपज हुई। मकई तथा अन्य फसलों में भी इसी प्रकार की उपज हुई। इन किसानों ने रासायनिक उर्वरकों और जहरीले कीटनाशकों का प्रयोग बंद करके जैविक कृषि की शुरुआत की है। केंचुआ खाद (वर्मी कम्पोस्ट) नीम की पत्तियों और गोमूत्र के संयोग से बने कीटनाशक के प्रयोग का ही कमाल है कि दो वर्षों के अंदर ही उनके खेतों की उर्वरा शक्ति वापस लौट आयी। जब रासायनिक खादों का प्रयोग शुरू हुआ था, तो उपज बढ़ी थी। लेकिन धीरे-धीरे उर्वरा शक्ति क्षीण होती गई और खेती का खर्च बढ़ता चला गया। जैविक कृषि के द्वारा कम सिंचाई में ही अच्छी फसल होने लगी है क्योंकि अब मिट्टी में वर्षा जल को सोख कर टिकाये रखने की क्षमता काफी बढ़ गई है। जिन खेतों में जैविक खादों के सहारे सब्जी उगाई जा रही है वहां की सब्जियां ज्यादा स्वादिष्ट और ज्यादा पौष्टिक हैं। मुजफ्फरपुर लीची के लिए प्रसिद्ध है। लीची के जिन बागानों में जैविक खाद और जैविक कीटनाशक का प्रयोग हो रहा है वहां की लीची का रंग, आकार और स्वाद बेहतर है। यही कारण है कि जैविक खेती के द्वारा उपजाये गये अनाज, फल और सब्जियों के भाव भी ज्यादा मिलते हैं। 

रासायनिक कृषि से फसल चक्र भी बिगड़ गया है। एक ही प्रकार की फसल बार-बार लगाने से मिट्टी की उर्वरा शक्ति नष्ट हो जाती है। दाल और अनाज वाली फसलों को अदल-बदल कर बोने या मिश्रित रूप से बोने पर खेत उर्वर बने रहते हैं। जैविक कृषि करनेवालों ने इसे फिर से अपनाया है। रासायनिक कृषि से पौधे के लिए आवश्यक सूक्ष्म पोषक तत्व भी समाप्त होने लगे हैं। मिट्टी की जांच का झंझट सामने आता है और सूक्ष्म पोषक तत्वों को महंगे दाम पर खरीदकर खेतों में छिड़कना पड़ता है। जबकि केंचुआ खाद में सभी पोषक तत्व पर्याप्त मात्रा में होते हैं। एसिनिया फटिडा केंचुआ द्वारा निर्मित जैविक खाद में नाइट्रोजन, फॉस्फेट और पोटैशियम के साथ-साथ पर्याप्त मात्रा में कैल्शियम, मैग्नीशियम, कोबाल्ट, मोलिब्डेनम, बोरोन, सल्फर, लोहा, तांबा, जस्ता, मैंगनीज, जिबरैलीन, साइटोकाइनीन तथा ऑक्सीजन पाये जाते हैं। इसके अलावा इसमें बहुत सारे बायोऐक्टिव कम्पाउंड, विटामिन एवं एमिनोएसिड होते हैं। 

बिहार के हजारों किसान परिवार मधुमक्खी पालन और शहद उत्पादन करके खुशहाल हुए हैं । जिन फसलों के आसपास मधुमक्खी के बक्से रखे जाते हैं वहां उपज में बीस प्रतिशत की वृद्धि हो जाती है, क्योंकि मधुमक्खियां फसलों के परागण में मददगार होती हैं । लेकिन जहरीले रासायनिक कीटनाशकों के छिड़काव के कारण कापफी मधुमक्खियां मर जाती हैं। उनके साथ तितली, केंचुए आदि खेती के मित्रा जीव.जन्तु भी मर जाते हैं। नुकसानदेह कीटों को खा जाने वाले मेढ़कों के जीवन पर भी आफत है। कौए, गौरैये, कोयल तथा अन्य चिड़ियों की चहचहाहट तथा कबूतरों की गूंटर-गूं भी कम सुनाई पड़ती है। चील भी कम दिखाई देते हैं और गिद्ध तो दिखाई ही नहीं देते। लेकिन जिन गांवों में जैविक कृषि होने लगी है वहां मित्र जीव-जन्तुओं की सुरसुराहट, चिड़ियों की चहचहाहट और हलचल का मधुर संगीत फिर से सुनाई देने लगा है। 

मध्यकाल से ही सरइसा परगना (अब का तिरहुत) के एक बड़े इलाके में किसान नगदी फसल के रूप में तम्बाकू की खेती करते आ रहे हैं। किसान जानते हैं कि वे तम्बाकू के रूप में जहर उपजा रहे हैं। लेकिन पेट की खातिर इसे करना पड़ता है। पर तम्बाकू की खेती अब उतनी फायदेमंद नहीं रही। ऐसे में अनेक किसानों ने पुदीना, लेमन ग्रास, अश्वगंध, सफेद मूसलीए शतावर, आंवला, हर्रे, बहेड़ा, जस्टीसिया जैसे सैकड़ों औषधीय पौधों की खेती शुरू की है और उन्हें अच्छा मुनाफा भी मिलने लगा है। देशी और अंतर्राष्ट्रीय बाजार में इनकी बड़ी मांग है। 

आठ साल पूर्व कम्मन छपड़ा गांव के पफुदेनी पंडितए गोविंदपुर के श्रीकांत कुशवाहा और मानिकपुर के सुबोध तिवारी ने जब केंचुआ खाद और जैविक कीटनाशक तथा औषधीये पौधे का प्रचार-प्रसार शुरू किया था, तो लोग इन्हें पागल समझते थे। उनके घरवाले भी रासायनिक कृषि को छोड़ जैविक कृषि अपनाने के लिए तैयार नहीं थे । आज ये किसानों के प्रेरणास्रोत और मार्गदर्शक बन गए हैं। दरभंगा, मधुबनी, समस्तीपुर, मुंगेर, भागलपुर हर जगह जैविक कृषि का प्रसार होने लगा है। इससे खेती की लागत भी घट रही है और रोजगार के नए अवसर भी पैदा होने लगे हैं। जैविक कृषक मंडलों का गठन होने लगा है और जैविक कृषक पंचायत बुलाकर जैविक कृषि अपनाने का फैसला भी लिया जा रहा है । वीरेन्द्र नरेश जैसे कई लोग उत्साह से इस काम में लगे और सकरी सरैया गांव में आयोजित एक कृषक पंचायत में फुदेनी पंडित और श्रीकांत कुशवाहा को सम्मानित किया गया।

कुछ वर्ष पूर्व असम से जर्मनी तथा अन्य यूरोपीय देशों को निर्यात की गई चाय वापस लौटा दी गई थी। उस चाय में जहरीले कीटनाशकों तथा रासायनिक पफर्टिलाइजर के अंश पाए गए थेए जिन्हें मानव स्वास्थ्य के लिए हानिकारक माना जाता है। नासिक से निर्यात किए गए अंगूर को भी इसी कारण लौटाया गया था। अमीर देश अपने यहां आयात की जाने वाली सब्जियों, फलों, अनाज तथा दूध आदि की जांच के बाद उन्हें निरापद पाये जाने पर ही लेते हैं। इसलिए चाय बागान वाले अब केंचुआ खाद और जैविक कीटनाशकों का प्रयोग करने लगे हैं । जैविक खाद की रही मांग काफी बढ़ रही है और उत्पादकों को अच्छी आमदनी भी हो रही है। निर्यात किए जाने वाले पफलोंए सब्जियों आदि के उत्पादन के लिए भी इनकी मांग बढ़ी है। सरकार कुछ सब्सिडी भी देने लगी है । लेकिन सब्सिडी का ज्यादा पैसा या तो बिचौलिए मार लेते हैं या वापस लौट जाता है। कुछ अपवादों को छोड़ दें तो ज्यादातर बैंक कर्मी उदासीन या नकारात्मक रवैया ही रखते हैं। सरकार भी सिर्फ निर्यात वाले खाद्य पदार्थों के जैविक उत्पादन की चिंता करती है। खेती में जहरीले रसायनों के प्रयोग से पंजाब में कैंसर तथा अन्य घातक बीमारियों का प्रसार हुआ है। क्या हम रासायनिक उर्वरकों तथा जहरीले कीटनाशकों के लिए दी जानेवाली भारी सब्सिडी को समाप्त करके उस पैसे को जैविक कृषि में लगे कृषकों की मदद में खर्च नहीं कर सकते?


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जय प्रभा नगर, मझौलिया रोड, मुजफ्फरपुर . 842001 (बिहार)
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बुधवार, 31 मार्च 2021

जल, जमीन और मछुआरे

  • अनिल प्रकाश 

1982 में कहलगांव (भागलपुर) के स्थानीय मछुआरों एवं सामाजिक रूप से सक्रिय युवाओं ने मिलकर गंगा मुक्ति आंदोलन की शुरुआत की थी। उस समय भागलपुर जिले के सुल्तानगंज से लेकर पीरपैंती तक 80 किलोमीटर तक की गंगा की बहती धारा में मछली पकड़ने के अधिकार की जमींदारी चल रही थी। 1990 आते-आते प्रथम चरण का करबंदी आंदोलन सफल हुआ और पानी की यह जमींदारी समाप्त हुई। लेकिन जमींदारी की समाप्ति से पूरी समस्या हल नही होने वाली थी, क्योकि बिहार के पाँच सौ किलोमीटर गंगा क्षेत्र में मछली पकड़ने का ठेका स्थानीय मछुआ सहकारी समितियों के मार्फत उन लोगों के हाथ चला जाता था जिनका कोई संबंध मछली पकड़ने के काम से न था और न ही यह इनका पुश्तैनी पेशा रहा। जिनके हाथों में वैध-अवैध बंदूकों की ताकतए पैसा और राजनैतिक संबंध थेए ऐसे जल मापिफयाओं के हाथ में ही पूरी गंगा थी। फिर आंदोलन चला। पूरी गंगा में मछुआरों ने टैक्स देना बंद कर दिया । अंततः जनवरी 91 में बिहार सरकार ने घोषणा की, तत्काल प्रभाव से गंगा समेत बिहार की सभी नदियों की मुख्य धारा तथा उससे जुड़े झील-ढ़ाब में परंपरागत मछुआरे निःशुल्क मछली की शिकारमाही करेंगे। इन पर जलकरों की कोई बंदोबस्ती नहीं होगी। सभी परंपरागत मछुआरों को शीघ्र पहचान.पत्रा बनाकर सरकार देगी। नाईलोन के बड़े.बड़े जाल से मछली पकड़ने पर प्रतिबंध लगाया जाता है। मछली पकड़ने में विस्पफोटकों के इस्तेमाल पर पाबंदी रहेगी। जहर यानी रासायनिक कीटनाशक के इस्तेमाल से मछली पकड़ने पर प्रतिबंध् रहेगा। उधर, पश्चिम बंगाल के उधवा बादशाही ब्रिज से नीमतीता छमघाटी यइस्लामपुरद्ध के बीच चौंसठ किलोमीटर तक गंगा के क्षेत्रा में आज तक मछली की ठेकेदारी प्रथा कायम है। वहां भी मछुआरों का भयंकर शोषण हो रहा है और मार्क्सवादी सरकार टुकुर-टुकुर देख रही है। पर जो सवाल सबसे महत्वपूर्ण रूप में उभर कर आया हैए वह है फरक्का बराज का सवाल। फरक्का बराज के कारण पूरे उत्तर भारत की ग्रामीण अर्थव्यवस्था ध्वस्त हो गयी है, करोड़ों लोगों के जीविका के साधन नष्ट हो गये हैं। बाढ़ और जल के बढ़ते प्रकोप ने गंगा क्षेत्र के लोगों को बेहाल कर दिया है। 1975 में जब फरक्का बराज बनकर तैयार हुआ थाए तब मार्च महीने में वहां गंगा में बहत्तर फीट पानी रहता था। अब नदी बालू.मिट्टी से भर गयी है। 2001 के मार्च में वहां पानी की गहराई सिर्फ तेरह फीट थी। बराज बनने के बाद केवल मालदा और मुर्शिदाबाद जिले में छह सौ वर्ग किलोमीटर से भी ज्यादा उपजाउ भूमि कटावग्रस्त हो गयी है। इस दौरान वहां पांच लाख से ज्यादा लोग विस्थापित हुए। फरक्का सुपर थर्मल पावर कॉलोनी के पास एक झोपड़ी में रहने वाले 63 वर्षीय इंसान अली बताते हैं कि जब फरक्का बराज बन रहा था, उनका गांव सिमलतल्ला गंगा से लगभग छह किलोमीटर दूर था। बराज बनने के बाद हर साल मिट्टी का तेज कटाव शुरू हुआ और गांव के गांव गंगा में विलीन होने लगे। इंसान अली के गांव के लगभग एक हजार घर नदी में समा गये। यही हाल राधनगर, उधवा, मानिकचंद, मालदा, राजनगर जैसे सैकड़ों गांवों का हुआ। कटाव और विनाश का क्रम लगातार जारी है।

बिहार और उत्तर प्रदेश का गंगा क्षेत्र भी बालू से भर गया है। वहां कितना कटाव और विनाश हुआ है, इसका अध्ययन करना अभी बाकी है । फरक्का बराज बनने से पहले गंगा नदी में बाढ़ के समय 150 फीट तक गहरी उड़ाही प्राकृतिक रूप से हो जाती थी। गंगा की सहायक नदियां और नाले भी गहरे रहते थे। परन्तु अब फरक्का बराज बनने के बाद गंगा और उसकी सहायक नदियों और नालों का तल उंचा होता गया है । पश्चिम बंगाल, बिहार और उत्तर प्रदेश में हजारों ऐसे चौर हैं जहां पहले सिर्फ बारिश के समय पानी भरा रहता था। बारिश समाप्त होते-होते उनका पानी नालों और नदियों के मार्पफत निकल जाता था। अब हालत ऐसी हो गयी है कि उन नदियों और नालों का तल चौर के तल से उंचा हो गया है। परिणामतः जल.निकास नहीं हो पाता और ये चौर दस-दस महीने तक जलजमाव से ग्रस्त रहते हैं ।

लम्बे समय तक जलजमाव रहने पर धरती के अंदर का रसायन रिस-रिस कर उपर आता है। भीषण जलजमाव के कारण लाखों-लाख एकड़ जमीन उसर हो गयी है। गंडक एरिया डेवलपमेंट अथॉरिटी यगाडाद्ध की एक रिपोर्ट के मुताबिक सिर्फ गंडक क्षेत्र में दस लाख एकड़ भूमि उसर 'क्षारीय' हो गयी है । केन्द्रीय जल आयोग की रिपोर्ट के मुताबिक भारत में प्रति वर्ष 75 हजार एकड़ कृषि योग्य जमीन उसर होती जा रही है। इसका अधिकांश भाग गंगा के मैदानी इलाकों में पड़ता है। दुनिया भर के मिट्टी वैज्ञानिकों की सर्वमान्य राय है कि गंगा के मैदान उर्वरता की दृष्टि से विश्व में सर्वश्रेष्ठ हैं। ऐसी सोना उगलने वाली धरती का नाश हो रहा है। 

पश्चिम बंगाल, बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, दिल्ली, हरियाणा और राजस्थान की अनेक नदियों का पानी घूम-फिर कर गंगा में मिलता है। इन नदियों में समुद्री मछलियों के आने.जाने का रास्ता फरक्का बराज बनने के बाद रुक गया। दर्जनों किस्म की मछलियां ऐसी हैं जो मीठे पानी में रहती हैं, लेकिन उनका प्रजनन समुद्र के खारे पानी में होता है। झींगा इसका एक उदाहरण है। उसी प्रकार हिलसा जैसी दर्जनों किस्म की मछलियाँ समुद्र में विचरण करती हैं, लेकिन उनका प्रजनन ट्टषिकेश के ठंडे मीठे पानी में होता है। मछलियों की आवाजाही रुकने से उनके प्रजनन की यह प्रक्रिया गंभीर रूप से बाधित हुई। पफरक्का बराज बनने से पहले पश्चिम बंगालए बिहार और उत्तर प्रदेश में गंगा की बहती धारा में वर्षा के समय पर्याप्त अंडा जीरा मिलता था। उस समय इस क्षेत्रा की आवश्यकता पूर्ति के बाद बड़ी मात्रा में अंडा जीरा दूसरे प्रदेशों में भेजा जाता था। अब इस क्षेत्र में कुल आवश्यकता का 25 प्रतिशत अंडा जीरा ही उपलब्ध है। बिहार स्टेट फिशरी डेवलपमेंट बोर्ड के अनुसार बिहार में प्रति वर्ष आठ लाख मिलियन अंडा जीरा की आवश्यकता है । वर्त्तमान में बिहार के गंगा.क्षेत्रा में इसकी सालाना उपलब्धता घट कर दो लाख मिलियन ही रह गयी है। अब बहुराष्ट्रीय कम्पनियां, उनके साझेदार तथा अन्य बड़े पूंजीपति आंध्र प्रदेश तथा अन्य स्थानों पर आर्टिफिशियल हैचरी का निर्माण करके अंडा जीरा और फिंगरलिंग मनमाने दामों पर बेच रहे हैं।

फरक्का बराज बनने के बाद गंगा से जुड़ी इन तमाम नदियों में 75 प्रतिशत से भी ज्यादा मछलियां समाप्त हो गयीं । न केवल उनकी तादाद घटीए बल्कि बड़े आकार वाली चार-पाँच फीट वाली मछलियां देखने को नहीं मिलतीं । पफलतः इन राज्यों के मछुआरे कंगाल हो गए । पहले इन क्षेत्रों से मछलियां दूसरे राज्यों में भेजी जाती थीं । लेकिन अब प्रतिदिन एयरकंडीशन ट्रकों में भर-भर कर आंध्र प्रदेश से मछलियां यहां लायी जाती हैं।


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