- एलएस कॉलेज में दो दिवसीय राष्ट्रीय सेमिनार का समापन
- गंगा को बचाने के लिए सर्वसम्मिति से ‘मुजफ्फरपुर सहमति’ पारित
मुजफ्फरपुर। एलएस कॉलेज में दो दिवसीय राष्ट्रीय सेमिनार ‘संरक्षण एवं चुनौतियां’ के आखिरी दिन शुक्रवार को ‘मुजफ्फरपुर सहमति’ को पारित किया गया। इसके अनुसार हमारे लिए गंगा की हिफाजत का मतलब है, गंगोत्री से बंगाल की खाड़ी तक पूरी जिन्दगी की हिफाजत। विकास की सोच पर पुर्नविचार की जरुरत महसूस करते हैं, जो अपनी मूल प्रवृति में विध्वंसात्मक और गैर लोकतांत्रिक है। ‘लौटा द नदिया हमार’।
डॉ. कैसर शमीम ने कहा कि गंगा का मतलब जिंदगी है। गंगा की हिफाजत का मतलब है, गंगोत्री से बंगाल तक पूरे इलाके की जिंदगी, हर नदी,पोखर की हिफाजत। यह खुशकिश्मती है कि तिरहुत की नदियां गंगा में साफ पानी डाल रही हैं। ऐसा अन्य जगह देखने को नहीं मिलता है। सामाजिक सरोकार और विज्ञान के साथ काम करेंगे तभी गंगा को बचाने की अहमियत का पता चलेगा। गंगा को बचाने की मुहीम में सिर्फ सरकारी मुहीम की चर्चा हो रही है। अभी तक इस मसले पर केंद्र सरकार का मिजाज साफ नहीं है। लेकिन जो भी जानकारी बाहर आई है, वह किसान, नदी और पर्यावरण के लिए ठीक नहीं है। इसके अनुसार मछली पकड़ने पर रोक और स्मार्ट सिटी बनाने की योजना है। यहां अजीब सरकारी सोच है जिसे लगता है कि टूरिस्ट के घूमने व प्रदूषण फैलाने से गंगा को नुकसान नहीं होगा और मछली पकड़ने से नुकसान हो जाएगा। डॉ. शमीम ने कहा कि सामाजिक सरोकार की सोच से ही गंगा को बचाया जा सकता है। उन्होंने कहा कि इस सामाजिक मुहीम में स्थानीय बोली और भाषा महत्वपूर्ण है। अपनी बोली में आंदोलन होगा तो लोगों को अपनापन का एहसास होगा। उनके पास स्थानीय बोली में ज्ञान का भंडार है। यह गंगा को बचाने में काम आ सकेगी।
डॉ. रीना ने कहा कि गंगा पर बांध बनाकर इसकी गति को रोकना बड़ा अपराध है। उन्होंने कहा कि पहली बार गंगा पर ब्रिटिश सरकार ने हरिद्वार के पास बांध बनाने की कोशिश की थी। उस वक्त वर्ष 1916 में महामना मदन मोहन मालवीय ने विरोध किया और तब अंग्रेज सरकार ने समझौता किया कि गंगा पर डैम नहीं बनेंगे। अब ऐसे ही कदम की जरूरत है। उन्होंने गंगा को धार्मिक आस्था के आधार पर गंगा पर न बांधने की अपील की। उन्होंने कहा कि गंगा राजनीति से अलग जनकल्याण के लिए जरूरी है। यह ऐसा नाम है जिसे स्मरण से ही तनमन ही नहीं आत्मा भी पवित्र हो जाती है। उन्होंने सुझाव दिया कि गंदे जल को गंगा में न मिलाकर इसका उपयोग सिंचाई में किया जा सकता है।
एलएस कॉलेज में इतिहास के प्राध्यापक डॉ. अशोक अंशुमन ने ब्रिटिश राज के समय पानी को लेकर हुए आंदोलन और इसके प्रभाव से बदले गए कानूनों पर चर्चा की। इससे लोगों को पानी और मछलियों पर अधिकार मिला।
कॉमर्स कॉलेज, पटना के प्रो. सफदर ईमाम कादरी ने कहा कि गंगा को लेकर केंद्र सरकार का विचार भ्रमक है। ऐसा इसलिए कि एक तरफ इसे धर्म की ईकाई बताया जा रहा है तो दूसरी तरफ आर्थिक मामला। उन्होंने कहा कि गंगा की सफाई की योजना बनाने से पहले पुराने गंगा एक्शन प्लान की समीक्षा जरूरी है। उस योजना में कई हजार करोड़ रुपए खर्च किए गए। पता लगाना चाहिए कि आखिर कहां-कहां गड़बड़ी हुई। अब सरकार पुरानी बात भूलकर एक बार फिर से नई भूल करने जा रही है। प्रो. कादरी ने कहा कि गंगा पर बहूस्तरीय नीति बनाने की जरूरत है। गंगा की मुक्ति के लिए जाति-संप्रदाय से ऊपर उठकर बोलना होगा, क्योंकि गंगा सबकी है।
पानी आंदोलन में जुटे सामाजिक कार्यकर्ता अफसर जाफरी ने बताया कि गंगा की सफाई और इसपर बराज बनाने की योजना के पीछे जल के निजीकरण की छिपी हुई योजना है। चुपके-चुपके दिल्ली (साउथ दिल्ली), नागपुर, मुम्बई, मैसूर, खंडवा और बैंग्लोर में पानी का निजीकरण किया जा चुका है। उन्होंने बताया कि दिल्ली में टिहरी से स्पेशल नहर से पानी आता है और इसे निजी कंपनी साउथ दिल्ली में सप्लाई करती है। उन्होंने अपने अनुभव को साझा करते हुए कहा कि यहां पानी इतना महंगा है कि एक साल में वह 11 हजार रुपया बिल जमा कर चुके हैं। उन्होंने बताया कि केंद्र सरकार से जो सूचनाएं बाहर आईं हैं उसके मुताबिक करीब 40 बराज बनाने की बात चल रही है। ऐसा करके पानी को निजी कंपनियां के मार्फत बेचने की योजना है।उन्होंने कहा कि डब्ल्यूटीओ पानी के निजीकरण की कोशिश कर रहा है। पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप के नाम पर स्वेज, टेम्स वाटर जैसी बड़ी कंपनियां इस इंतजार में हैं कि जल्द से जल्द उन्हें पानी के बड़े पैमाने पर बिक्री का अधिकार मिले।
सामाजिक विचारक किशन कालजयी ने कहा कि गंगा समेत पकृति के साथ लगातार बदसलूकी की जा रही है, ऐसे प्रकृति का पलटवार कभी जम्मू-कश्मीर तो कभी उत्तराखंड की जल त्रासदी के रूप में सामने आता है। इसके बावजूद हम ठीक से नहीं बना रहे हैं। उन्होंने कहा कि भारत में भौगोलिक विविधता है और यहां के स्थानीय मुद्दों को ध्यान में रखकर सरकार को योजना बनाना चाहिए।
उन्होंने कहा कि गंगा की सफाई पर कुल 29 हजार करोड़ खर्च हो चुके हैं। इस पर श्वेत पत्र जारी होना चाहिए। जनता को यह हक होना चाहिए, हमारे पैसे को कैसे खर्च किया गया है।
दूसरे सत्र में हिमालयन इकोलॉजिस्ट जयंत बंधेपाध्याय ने स्काइप पर वीडियो चैट के माध्यम से अपना विचार रखा। उन्होंने कहा कि प्रकृति के नब्ज को बिना समझे प्रोजेक्ट बनाने से हम लगातार संकट में जा रहे हैं।
डॉ. डीके मिश्रा ने फोन पर अपना व्याख्यान दिया। उन्होंने कहा कि नदियों पर जितने ज्यादा बराज बनेंगे, उतना ही ज्यादा नदी में बालू जमा होगा। यह खतरनाक स्थिति होगी। बराज बनाकर जहाज चलाने से गंगा गंगा न रह जायेगी।
वरिष्ठ पत्रकार संतोष भारतीय ने स्काइप वीडियो कांफ्रेंसिंग के माध्यम से कहा कि गंगा मुक्ति में लगे हुए लोग और यमुना को जिन्दा रखने के आंदोलन को जोड़ना यह भी एक बड़ा आंदोलन है। सैडेड संस्था के संयोजक विजय प्रताप ने आम जनता के समझने के वैचारिक व आंदोलनात्मक संघर्ष को ‘मुजफ्फरपुर सहमति’ पत्र से जोड़ने की बात कही। एलएस कॉलेज के प्राचार्य डॉ. अमरेंद्र नारायण यादव ने कहा राष्ट्रीय सेमिनार ‘गंगा बेसीन : संरक्षण एवं चुनौतियां’ से समाज में एक चेतना फैलाने का भी प्रयास हुआ है। सामाजिक कार्यकर्ता अनिल प्रकाश ने समापन समारोह के दौरान ‘मुजफ्फरपुर सहमति’ को पेश किया। इस पर सर्वसम्मति से सहमति बनी। कार्यक्रम में गंगा बेसीन के संरक्षण और चुनौतियों पर पेंटिंग बनाने वाली छात्राओं को सम्मानित किया गया। कार्यक्रम के समापन समारोह की अध्यक्षता पूर्व डीजीपी रामचंद्र खान ने की। वक्ताओं में प्रो. नित्यानंद शर्मा आदि शामिल थे।
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मुजफ्फरपुर सहमति - ‘लौटा द नदिया हमार’
1. 25 और 26 सितमम्बर 2014 को मुजफ्फरपुर में हुए गंगा समाज के प्रतिनिधियों, विचारकों, लेखकों, कलाकर्मियों, वैज्ञानिकों, जनपक्षी अभियंताओं, समाज वैज्ञानिकों, सांस्कृतिक कर्मियों, नदी आंदोलन से जुड़े लोगों एवं नदी के साथ गलत छेड़-छाड़ के कारण पीडि़त लोगों और विशेषज्ञों का यह समागम, हमारी उन चिन्ताओं का प्रतीक है, जो हमारे पूरे क्षेत्रा की जैव-विविध्ता (बायोडाइवर्सिटी) के बारे में हमारे मन में है। हम अपनी इस चिन्ता में नेपाल और बांग्लादेश के लोगों को भी अपना साथी मानते हैं। जो गंगा की ताबाही से मुतासिर हो रहे हैं।
2. जब हम गंगा बेसिन की बात करते हैं तो हम उन तमाम नदियों और जलाशयों की भी बात करते हैं, जिनका प्रदुषित पानी गंगा में पहुँचकर, गंगा की अपनी सपफाई की क्षमता को भी नष्ट कर रहा है। हमारी चिन्ताओं में नदी के किनारे बेहंगम बसे शहरों एवं कल-कारखानें भी शामिल हैं, जिनका अनट्रीटेड वेस्ट और जहरीला पानी गंगा को तिल-तिल मार रहा है। केन्द्रीय प्रदूषण बोर्ड की 2013 की रिपोर्ट कहती है, गंगा के किनारे बसे शहरों के जरिए 2723 मिलीयन लीटर कचरा और सीवर की गलाजत रोजाना गंगा में डाली जा रही है, ये सरकारी आँकड़ा है। असल में तो इससे कई ज्यादा गलाजत हमारी उन दरियाओं में डाला जा रहा है, जिनका पानी गंगा में गिरता है। खुद केन्द्रीय प्रदूषण बोर्ड ने पाया है कि 6000 मिलीयन लीटर गंदा पानी रोजाना गंगा में डाला जा रहा है।
3. हमारे लिए गंगा की हिफाजत का मतलब है, गंगोत्री से बंगाल की खाड़ी तक पूरी जिन्दगी की हिफाजत। उसके जलवायु की हिफाजत, जमीन का बचाव, खेती और हरियाली की हिफाजत, जानवरों और पौधें का बचाव और वो सब कुछ जो इस क्षेत्र की जिन्दगी को बचाये रखने के लिए जरुरी है। इन सबके बीच धरती का वो इन्सान हैं, जिसके लिए इस पूरे वातावरण को बचाया जाना है यानि हमारे मछुआरे, किसान, माली, बढ़ई, मीर शिकार,कुम्हार, धोबी, सपेरे यानि गंगा के मैदान में बसी पुरी आबादी जिसका जीना- मरना गंगा के साथ है। ये वो लोग हैं, जो अपनी जीविका के लिए गंगा पर आश्रित है और जो अपने सीने में सदियों के इंसानी तजुर्बे का खजाना सुरक्षित रखा हैं।
4. विज्ञान भले हीं 80 प्रतिशत जीव-जन्तुओं का नामकरण नहीं कर पाया हो, मगर इनकी अपनी बोली में उनका कोई न कोई नाम जरुर होता है और वो उसका ऐसा ज्ञान रखते हैं जहाँ तक विज्ञान की पहूँच नहीं हो सकी है। लेकिन उनका ये सारा ज्ञान उनकी अपनी बोलियों में है। जिसके बिना इंसानी तजूर्बे के इस बड़े खजाने को बचाया नहीं जा सकता। जब भी कोई भाषा लुप्त होती है तो उसके साथ सदियों में जमा किया गया इंसानी तजूर्बे का खजाना भी लुप्त हो जाता है। इसीलिए हम जैव-विविधता और भाषायी विविधता के आपसी रिश्ते पर जोर देते हैं और हमारा मकसद इस ध्रती की पुरी विविधता की हिफाजत है।
5. इन सबके बीच है गंगा की सफाई की सरकारी बातें, जिसका हाल अन्य सरकारी स्कीमों की तरह है। यानि पहले कैंसर पैदा करने वाले फल एवं सब्जियाँ उगाओ, लोगों की सेहत बरबाद करने का मुकम्मल बंदोबस्त करें और पिफर कैंसर के अस्पताल खोलों और बिमारियों का इलाज ढ़ूँढ़ो। अब तक की तबाही क्या कम थी की हमारी सरकार अब इलाहाबाद से बंगाल के खाड़ी के बीच 16 बराज बनाने की बात कर रही है। जिसका मतलब होगा,गंगा को 16 बड़े तालाबों में बदल देना। इन सबके नतीजें में जो ताबाही फैलेगी तो फिर उसका इलाज ढूंढ़ने के लिए तेजारती कंपनियाँ सामने आयेगी,जिनका मकसद सिपर्फ मुनाफा कमाना है। उनको इलाज ढूँढ़ने के जरिए भी मुनाफा कमाने का एक और मौका मिलेगा। सरकार नदी के किनारे जगह-जगह टूरिज्म के सेन्टर खोलना चाहती है, जिससे सरकार को मामूली मगर टूरिज्म से जुड़े तेजारती घरानों को अधिक लाभ होगा।
6. जल, वायु, जमीन, आसमान, पहाड़, जंगल, सूरज और उसकी धूप तथा उससे पैदा होनेवाली ऊर्जा जनसंपदा है। सरकार को इसके सुचालन के लिए चुना जाता है। वो इसकी मालिक कतई नहीं है। इसलिए उसे कतई ये अधिकार नहीं है कि वो जनसम्पदा को बाजार की चीज बनायें। हम इसे मुजरिमाना कार्रवाई मानते है।
7. हम गंगा से उस रागात्मक संबंध की बात करते हैं, जो पुरी प्रकृति के साथ होना चाहिए ताकि यह धरती इंसान के रहने लायक रह सके और उसे सुख दे सके। इंसान और तमाम जानदार के लिए जीने का बेहतर माहौल बनाये रखना हम अपनी जिम्मेवारी समझते हैं। गंगा, प्रकृति के साथ रागात्मक संबंध बनाये रखने की इस जद्दोजहद का प्रतीक है। हम पुरे विकास की सोच पर पुर्नविचार की जरुरत महसूस करते हैं, जो अपनी मूल प्रवृति में विध्वंसात्मक और गैर लोकतांत्रिक है।
8. हम प्रस्तावित करना चाहेंगे कुछ उन लोगों के नाम जो इस सेमिनार के बाद मिल बैठ कर इस सहमति को सक्रिय सोच विचार और संघर्ष के रूप में परिवर्तित कर दो महीने के अंदर 26 दिसंबर 2014 को एक प्रारूप प्रस्तुत करेगी।
इस संबंध में हमारी एकजुट मांग है, ‘लौटा द नदिया हमार’।
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