बागमती नदी की जलधारा को बांधने की कोशिश ने खुशहाल आबादी को उजाड़ दिया
- अनिल प्रकाश
Published in Hindustan News Paper On 23-05-2012 (Editorial Page no- 8) |
बिहार स्टेट डिजास्टर मैनेजमेंट अथॉरिटी और मिनिस्ट्री ऑफ अर्थ साइंसेज ने मिलकर आईआईटी, कानपुर के दो प्रोफेसर विकास रामाशय और राजीव सिन्हा से बाढ़ पर एक रिपोर्ट बनवाई है। रिपोर्ट का कहना है कि इंजीनियरों व वैज्ञानिकों के तमाम प्रयासों के बावजूद हर बार नदियों के तटबंध टूट जाते हैं और नदियां अपनी धारा बदलने लगती हैं। हर साल भारी धनराशि खर्च की जाती है, लेकिन अपेक्षित परिणाम नहीं आता। रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि अनेक मामलों में बाढ़ नियंत्रण के इंजीनियरिंग समाधान न केवल अस्थायी साबित हुए हैं, बल्कि इनसे सुरक्षा की झूठी आशा पैदा होती है। लोग निश्चिंत हो जाते हैं और जान-माल की भारी क्षति होती है।
उत्तर बिहार की लगभग सभी नदियों का उद्गम नेपाल का हिमालय है। हिमालय आज भी ऊपर उठ रहा है, जिसके कारण हिमालय क्षेत्र में हर साल लगभग एक हजार छोटे-बड़े भूकंप के झटके आते रहते हैं। इससे पैदा होने वाले भूस्खलन से निकली मिट्टी-बालू बरसात के समय गाद के रूप में भारी मात्र में आती है। बागमती और कमला नदियों में आने वाली गाद अत्यधिक उपजाऊ होती है। इसलिए इस इलाके में बाढ़ को लोग वरदान मानते थे। कहावत है- बाढ़े जीली, सुखाड़े मरली। बाढ़ धीरे-धीरे आती थी और खेतों में उपजाऊ मिट्टी बिछा जाती थी। खेत को जोते बिना ही किसान बीज बिखेर देते थे। इतनी फसल होती थी कि लोगों को परदेस जाकर कमाने की जरूरत नहीं पड़ती थी। पर 1954 के बाद, जब बाढ़ नियंत्रण के नाम पर 12 किलोमीटर चौड़ाई में बहने वाली बागमती को तीन किलोमीटर की चौड़ाई में तटबंधों से बांधा जाने लगा, तो मुसीबतें बढ़ने लगीं। लोग उजड़ गए। पुनर्वास का कोई इंतजाम नहीं हुआ। तटबंध के अंदर के खेत बालू से भर गए।
सीतामढ़ी, शिवहर, मुजफ्फरपुर, समस्तीपुर, दरभंगा, सहरसा, खगड़िया जिलों से गुजरने वाली बागमती नदी और उसकी सहायक नदियां लाल बकेया, लखनदेई, मनुषमारा और अधवारा समूह की सैकड़ों जलधाराएं तटबंध निमार्ण के पूर्व उन्मुक्त बहती थीं। पर जिन-जिन इलाकों में तटबंध बन गए हैं, वहां जल निकासी का मार्ग बंद है। जल-जमाव की समस्या पैदा हो गई है। तटबंध के अंदर का हिस्सा काफी ऊंचा हो गया है और बाहरी हिस्सा नीचा रह गया, इसलिए जल निकास का उपाय संभव नहीं है।
वर्ल्ड कमीशन ऑन डैम्स और विश्व बैंक द्वारा गठित विशेषज्ञ समितियों ने भी बांध तथा तटबंधों को अवैज्ञानिक तथा पर्यावरण के लिए घातक मानते हुए इनकी डी-कमीशनिंग की सिफारिश की है। गाद की मात्र को देखते हुए सभी ने इसे गलत ठहराया है। बागमती नदी के जिन इलाकों में अभी तक तटबंध नहीं बने हैं, वहां लोग इसके निर्माण का विरोध कर रहे हैं। लेकिन जिन्होंने विशेषज्ञों की राय पर ध्यान नहीं दिया, वे इन आंदोलनों की बात आसानी से कहां मानेंगे?
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