बुधवार, 25 अप्रैल 2012

कंपनियों के कुचक्र में फंसी बिहार की कृषि

* अनिल प्रकाश 
जहाँ देश के लगभग 68 प्रतिशत लोग गाँव और कृषि पर निर्भर हैं, वहीं बिहार की 88.७ प्रतिशत आबादी गांवों में रहती हैं. कृषि, पशुपालन, मछलीपालन और कुटीर उद्योगों के आधार पर जीवनयापन करती हैं. कृषि क्षेत्र की उपेक्षा, सामंती भूमि संबंध और नदियों के प्रबंधन में हुई गंभीर गलतियों के कारण अत्यधिक उर्वर भूमि वाला बिहार का ग्रामीण क्षेत्र गरीबी में जी रहा है. बड़ी संख्या में लोगों को रोजी-रोटी के लिए दूसरे राज्यों में पलायन करना पड़ता है. लेकिन इन्हीं प्रवासी मजदूरों द्वारा भेजे गए पैसों से बिहार के आर्थिक जीवन में गतिशीलता है तथा विकास का सिलसिला तेज हुआ है और सामाजिक संबंधों में भी बड़ा बदलाव आया है. साथ ही, भूमि संबंधों में भी बदलाव आ रहा है. यह सब नीचे से हो रहा है. इससे स्थानीय स्तर पर रोजगार के नए अवसर भी पैदा हो रहे हैं. लेकिन दुखद बात यह है कि आज भी यहाँ की प्रशासनिक मशीनरी योजना व्यय (जिसमें कृषि क्षेत्र की आवंटित राशि भी शामिल है) की पूरी राशि खर्च नहीं कर पाती. काफी राशि हर साल लौट जाती है. पिछले वर्ष की तुलना में इस वित्तीय वर्ष में कृषि क्षेत्र के लिए योजना व्यय की राशि लगभग दुगुनी कर दी गयी है. लेकिन 24 हजार करोड़ रुपये के कुल योजना व्यय में यह अभी भी मात्र 846.86 करोड़ ही है. बिहार का भविष्य उज्ज्वल तभी हो सकता है जब कृषि से संबंधित क्षेत्रों का विकास किया जाये और कृषि आधारित छोटे-छोटे उद्योगों का जाल बिछाया जाये. इसके लिए ज्यादा पूँजी की जरूरत नहीं होगी. साथ ही, करोड़ों बेरोजगारों के लिए आजीविका के सम्मानपूर्ण अवसर प्राप्त होंगे. अब तक इस दिशा में कोइ ठोस नीति नहीं बनी है. उल्टे बड़ी-बड़ी बीज कंपनियां किसानों को झांसे में डालकर अनैतिक रूप से अपने बीजों का ट्रायल करवाती रहती है और बार-बार किसानों को कंगाल बना देती हैं. अगर हम अपने कृषि क्षेत्र को इस प्रकार के षड्यंत्रों से बचा लें और सही तरीके से उसकी तरक्की पर बल दे तो बिहार खुशहाली की राह पर तेजी से चल पड़ेगा. जिन बड़े-बड़े भूपतियों ने सीलिंग से फाजिल जमीन, गैरमजरुआ जमीन और भूदान की जमीन (जो कुल मिलाकर लगभग 50 लाख एकड़ है) पर नाजायज कब्ज़ा जमा रखा है और उसपर ठीक से खेती भी नहीं करते और परिणामतः उन खेतों की प्रति एकड़ उत्पादकता भी बहुत कम है. उसे मुक्त करा कर भूमिहीन किसानों में बांट दिया जाये, तो काहिली और निठ्ठलेपन की संस्कृति समाप्त होगी और उद्यमशीलता तेजी से बढ़ेगी. यह 60 लाख एकड़ जमीन, 50 लाख भूमिहीन परिवार को मिल जाये तो एक ओर बिहार में अन्न उत्पादन में अत्यधिक बढोतरी हो जाएगी तथा लोगों को जीविका का सम्मानजनक साधन मिल जाएगा.
कृषि विनाश की कहानी - 1
मुंग के पौधों में दाने नहीं आए : बिहार सरकार के कृषि विभाग के अधिकारियों ने आंध्रप्रदेश और महाराष्ट्र से बड़ी बीज कंपनियों के मूंग के बीज मंगवाकर किसानों के बीच उनका मुफ्त वितरण करवाया. उसके साथ खाद, कीटनाशक, खरपतवार नाशक आदि भी वितरित किये गए. पौधे खूब लहलहाये. उन्हें देखकर किसान हर्षित थे. लेकिन इन पौधों में दाने नहीं आये. जिन किसानों ने राजेंद्र कृषि विश्वविद्यालय, पूसा के एसएमएल 668 तथा सोना नामक बीज या अपने स्थानीय बीजों का प्रयोग किया था, उनमें खूब दाने आये थे. मुजफ्फरपुर जिले के एक हज़ार किसान आज रो रहे हैं. मधुबनी, दरभंगा, सुपौल और बक्सर के किसानों ने भी बताया कि उनके यहाँ भी मूंग की फसल में दाने नहीं आये. बिहार के कृषि विभाग के पास मूंग के क्रॉप फेल्योर की पूरी जानकारी है, लेकिन वे छिपाने की कोशिश कर रहे हैं. किसानों की फसल क्षति का मुआवजा देने से भी इनकार कर रहे हैं. कृषि विभाग के संयुक्त कृषि निदेशक राजेंद्र दास का कहना है कि रबी या खरीफ फसल में क्षतिपूर्ति अनुदान की व्यवस्था की गयी है. कृषि विभाग को किसने यह अधिकार दिया कि इतने बड़े पैमाने पर किसानों को अंधेरे में रखकर मूंग के बीज का ट्रायल करवाये ?

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