बुधवार, 25 अप्रैल 2012

बांध के खिलाफ बगावत की मशाल जल उठी

-- आंदोलनकारियों ने ट्रैक्टरों को काम करने से रोका 
-- 25 अप्रैल से अनिल प्रकाश गांव में ही करेंगे कैंप 
click on picture
गायघाट : प्रखंड के कल्याणी गाँव में  24 अप्रैल की सुबह एक अलग ही नजारा था. एक-एक घर से बच्चे, बूढ़े, औरत-मर्द आन्दोलन की मशाल लेकर चल पड़े बांध निर्माण को रोकने. सबकी आँखों में दहक रही थी आक्रोश की ज्वाला. बिहार सरकार की नीतियों के खिलाफ लोग उबल रहे थे. हजारों की संख्या में लोग बागमती बांध के निर्माण के लिए पहुंचे ट्रैक्टरों को जब्त कर लिया और काम रोक दिया. आन्दोलनकारियों ने ट्रैक्टर चालकों को खाना खिलाकर गाँव में रोके रखा. बागमती का आन्दोलन पूरी तरफ अहिंसक और शांतिपूर्ण चल रहा है. 



एक लाख लोगों का विरोध संदेश पहुंचेगा सरकार के पास

-- बेनीबाद से हस्ताक्षर अभियान का आगाज
-- जेल जायेंगे, लाठी खायेंगे, पर बांध बनने नहीं देंगे  : बागमती की जनता  
गायघाट (मुजफ्फरपुर)  : 24 अप्रैल को बेनीबाद, बंदरा स्थित खादी भंडार में बागमती इलाके के हज़ारों पीड़ितों की मौजूदगी में बांध निर्माण के विरोध में हस्ताक्षर अभियान की शुरुआत की गयी. सैकड़ों लोगों ने हस्ताक्षर कर जेल जाने, लाठी खाने का संकल्प लिया. जानकारी हो कि बिहार शोध संवाद के नेतृत्व में एक करोड़ लोगों का हस्ताक्षर करा कर मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री को सौंपने की योजना है. इस मौके पर लोगों ने सत्याग्रही फॉर्म भरे तथा स्थानीय स्तर पर एक टीम का गठन किया गया, जिसके संयोजक जीतेन्द्र यादव चुने गए. हस्ताक्षर अभियान को गति देने में पूर्व विधायक महेश्वर प्रसाद यादव जी-जान से जुटे हैं. इस मौके पर अनिल प्रकाश, रंजीव, चंद्रकांत मिश्र, आनंद पटेल आदि मौजूद थे. 





बागमती की व्यथा कथा में जुटे दिग्गज



- बांध निर्माण के विरोध में आवाज हुई बुलंद 
- बागमती पर बांध खतरनाक : खान 
मुजफ्फरपुर : बागमती सहित देश भर की नदियों पर जो बांध परियोजनाएं चलायी जा रही हैं, उसके पीछे जनकल्याण की भावना कम, कमीशनखोरी की भावना अधिक है. नदियां तो पहाड़ों से निकले जल का रास्ता मात्र है. इसके बहाने से नहीं, बल्कि इन्हें बांधने से समस्याएं उत्पन्न होती हैं. ये बातें सेवानिवृत डीजीपी रामचंद्र खान ने बागमती की व्यथा कथा पर 22 अप्रैल को बिहार विश्वविद्यालय के अर्थशास्त्र  विभाग में आयोजित जनसंवाद को संबोधित करते हुए कही. इस जनसंवाद में जुटे सभी लोगों से एक स्वर से बागमती को बांधे जाने का मुखर विरोध किया. पर्यावरणविद व लेखक अनिल प्रकाश के नेतृत्व में बागमती बांध निर्माण के विरोध में चल रहे इस आन्दोलन को देश भर से लोगों, अभियंताओं, लेखकों, पत्रकारों, सामाजिक कार्यकर्तायों आदि का पूरजोर समर्थन मिल रहा है. अब तो बागमती इलाके के प्रवासी बिहारियों का भी समर्थन मिलाने लगा है. इस कार्यक्रम में नदी विशेषज्ञ रंजीव कुमार, पूर्व विधायक महेश्वर प्रसाद यादव, डॉ हेमनारायण विश्वकर्मा, मधुबनी के कामेश्वर कामत, नदियों कर काम करने वाले विजय कुमार, सामाजिक कार्यकर्ता शाहीना प्रवीण, पूर्व सिंडिकेट सदस्य भूपनारायण सिंह, डॉ. कुमार गणेश, डॉ. हरेन्द्र कुमार, डॉ. एस मुर्तुजा, किसान नेता वीरेंदर राय, नन्द कुमार नंदन, अशोक भारत समेत सैकड़ों की संख्या में बुद्धिजीवी मौजूद थे. सञ्चालन पत्रकार एम अखलाक ने किया. प्रथम सत्र की अध्यक्षता डॉ. हरेन्द्र कुमार और दूसरे सत्र की अध्यक्षता वीरेंदर राय ने की. धन्यवाद ज्ञापन आनंद पटेल ने किया.



कंपनियों के कुचक्र में फंसी बिहार की कृषि

* अनिल प्रकाश 
जहाँ देश के लगभग 68 प्रतिशत लोग गाँव और कृषि पर निर्भर हैं, वहीं बिहार की 88.७ प्रतिशत आबादी गांवों में रहती हैं. कृषि, पशुपालन, मछलीपालन और कुटीर उद्योगों के आधार पर जीवनयापन करती हैं. कृषि क्षेत्र की उपेक्षा, सामंती भूमि संबंध और नदियों के प्रबंधन में हुई गंभीर गलतियों के कारण अत्यधिक उर्वर भूमि वाला बिहार का ग्रामीण क्षेत्र गरीबी में जी रहा है. बड़ी संख्या में लोगों को रोजी-रोटी के लिए दूसरे राज्यों में पलायन करना पड़ता है. लेकिन इन्हीं प्रवासी मजदूरों द्वारा भेजे गए पैसों से बिहार के आर्थिक जीवन में गतिशीलता है तथा विकास का सिलसिला तेज हुआ है और सामाजिक संबंधों में भी बड़ा बदलाव आया है. साथ ही, भूमि संबंधों में भी बदलाव आ रहा है. यह सब नीचे से हो रहा है. इससे स्थानीय स्तर पर रोजगार के नए अवसर भी पैदा हो रहे हैं. लेकिन दुखद बात यह है कि आज भी यहाँ की प्रशासनिक मशीनरी योजना व्यय (जिसमें कृषि क्षेत्र की आवंटित राशि भी शामिल है) की पूरी राशि खर्च नहीं कर पाती. काफी राशि हर साल लौट जाती है. पिछले वर्ष की तुलना में इस वित्तीय वर्ष में कृषि क्षेत्र के लिए योजना व्यय की राशि लगभग दुगुनी कर दी गयी है. लेकिन 24 हजार करोड़ रुपये के कुल योजना व्यय में यह अभी भी मात्र 846.86 करोड़ ही है. बिहार का भविष्य उज्ज्वल तभी हो सकता है जब कृषि से संबंधित क्षेत्रों का विकास किया जाये और कृषि आधारित छोटे-छोटे उद्योगों का जाल बिछाया जाये. इसके लिए ज्यादा पूँजी की जरूरत नहीं होगी. साथ ही, करोड़ों बेरोजगारों के लिए आजीविका के सम्मानपूर्ण अवसर प्राप्त होंगे. अब तक इस दिशा में कोइ ठोस नीति नहीं बनी है. उल्टे बड़ी-बड़ी बीज कंपनियां किसानों को झांसे में डालकर अनैतिक रूप से अपने बीजों का ट्रायल करवाती रहती है और बार-बार किसानों को कंगाल बना देती हैं. अगर हम अपने कृषि क्षेत्र को इस प्रकार के षड्यंत्रों से बचा लें और सही तरीके से उसकी तरक्की पर बल दे तो बिहार खुशहाली की राह पर तेजी से चल पड़ेगा. जिन बड़े-बड़े भूपतियों ने सीलिंग से फाजिल जमीन, गैरमजरुआ जमीन और भूदान की जमीन (जो कुल मिलाकर लगभग 50 लाख एकड़ है) पर नाजायज कब्ज़ा जमा रखा है और उसपर ठीक से खेती भी नहीं करते और परिणामतः उन खेतों की प्रति एकड़ उत्पादकता भी बहुत कम है. उसे मुक्त करा कर भूमिहीन किसानों में बांट दिया जाये, तो काहिली और निठ्ठलेपन की संस्कृति समाप्त होगी और उद्यमशीलता तेजी से बढ़ेगी. यह 60 लाख एकड़ जमीन, 50 लाख भूमिहीन परिवार को मिल जाये तो एक ओर बिहार में अन्न उत्पादन में अत्यधिक बढोतरी हो जाएगी तथा लोगों को जीविका का सम्मानजनक साधन मिल जाएगा.
कृषि विनाश की कहानी - 1
मुंग के पौधों में दाने नहीं आए : बिहार सरकार के कृषि विभाग के अधिकारियों ने आंध्रप्रदेश और महाराष्ट्र से बड़ी बीज कंपनियों के मूंग के बीज मंगवाकर किसानों के बीच उनका मुफ्त वितरण करवाया. उसके साथ खाद, कीटनाशक, खरपतवार नाशक आदि भी वितरित किये गए. पौधे खूब लहलहाये. उन्हें देखकर किसान हर्षित थे. लेकिन इन पौधों में दाने नहीं आये. जिन किसानों ने राजेंद्र कृषि विश्वविद्यालय, पूसा के एसएमएल 668 तथा सोना नामक बीज या अपने स्थानीय बीजों का प्रयोग किया था, उनमें खूब दाने आये थे. मुजफ्फरपुर जिले के एक हज़ार किसान आज रो रहे हैं. मधुबनी, दरभंगा, सुपौल और बक्सर के किसानों ने भी बताया कि उनके यहाँ भी मूंग की फसल में दाने नहीं आये. बिहार के कृषि विभाग के पास मूंग के क्रॉप फेल्योर की पूरी जानकारी है, लेकिन वे छिपाने की कोशिश कर रहे हैं. किसानों की फसल क्षति का मुआवजा देने से भी इनकार कर रहे हैं. कृषि विभाग के संयुक्त कृषि निदेशक राजेंद्र दास का कहना है कि रबी या खरीफ फसल में क्षतिपूर्ति अनुदान की व्यवस्था की गयी है. कृषि विभाग को किसने यह अधिकार दिया कि इतने बड़े पैमाने पर किसानों को अंधेरे में रखकर मूंग के बीज का ट्रायल करवाये ?

बुधवार, 11 अप्रैल 2012

कार्बन क्रेडिट पर राष्ट्रीय सेमिनार २८ को

कार्बन क्रेडिट पर राष्ट्रीय सेमिनार २८ अप्रैल को मुजफ्फरपुर के भगवानपुर स्थित अनुराधा हॉल में होना है. किसान संघर्ष मोर्चा के बैनर तले आयोजित होने वाले इस कार्यक्रम में महाराष्ट्र, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, कर्नाटक, पंजाब, मध्य प्रदेश समेत सात राज्यों से कार्बन क्रेडिट के जानकार शिरकत कर रहे हैं. किसान संघर्ष मोर्चा के संयोजक वीरेंदर राय कार्यक्रम की तैयारी में अपनी पूरी टीम के साथ जुटे हैं. इसी सिलसिले में वीरेंदर राय का कार्बन क्रेडिट के मुद्दे पर उनके सारगर्भित विचार और आन्दोलन से सम्बंधित जानकारियां आदि विभिन्न अखबारों में प्रकाशित हुए है. देखें अखबारों का कतरन (विस्‍तार से पढ़ने के लिए कतरनों पर क्लिक करें)- 


 

सोमवार, 9 अप्रैल 2012

बागमती को बांधे जाने के खिलाफ खड़े हुए किसान

 - अंबरीश कुमार        
नेपाल से निकलने वाली बागमती नदी को कई दशकों से बांधा जा रहा है। यह वह बागमती है जिसकी बाढ़ का इंतजार होता रहा है बिहार में वह भी बहुत बेसब्री से। जिस साल समय पर बाढ़ न आए उस साल पूजा पाठ किया जाता एक नहीं कई जिलों में। मुजफ्फरपुर से लेकर दरभंगा,सीतामढ़ी तक। वहा इस बागमती को लेकर भोजपुरी में कहावत है ,बाढे जियली -सुखाड़े मरली। इसका अर्थ है बढ़ से जीवन मिलेगा तो सूखे से मौत। नदी और बाढ़ से गाँव वालों का यह रिश्ता विकास की नई अवधारणा से मेल नहीं खा सकता पर वास्तविकता यही है। बागमती नेपाल से बरसात में अपने साथ बहुत उपजाऊँ मिटटी लाती रही है जो बिहार के कई जिलों के किसानो की खुशहाली और संपन्नता की वजह भी रही है। बाढ़ और नई मिट्टी से गाँव में तालाब के किनारे जगह ऊँची होती थी और तालाब भी भर जाता था। इसमे जो बिहार की छोटी छोटी सहायक नदिया है वे बागमती से मिलकर उसे और समृद्ध बनाती रही है। पर इस बागमती को टुकड़ो टुकड़ों में जगह जगह बाँधा जा रहा है । यह काम काफी पहले से हो रहा है और जहाँ हुआ वहा के गाँव डूबे और कई समस्या पैदा हुई। नदी के दोनों तटों को पक्का कर तटबंध बना देने से एक तो छोटी नदियों का उससे संपर्क ख़त्म हो गया दूसरे लगातार गाद जमा होने से पानी का दबाव भी बढ़ गया और कई जगह तटबंध टूटने की आशंका भी है। अब यह काम बिहार के मुजाफ्फरपुर जिले में शुरू हुआ तो वहा इसके विरोध में एक आंदोलन खड़ा हो गया है। इस आंदोलन की शुरुआत बीते पंद्रह मार्च को रामवृक्ष बेनीपुरी के गाँव से लगे मुजफ्फरपुर के कटरा प्रखंड के गंगिया गाँव से हुई जिसमे महिलाओं की बड़ी भागेदारी ने लोगों का उत्साह बढ़ा दिया। 

अस्सी के दशक में गंगा की जमींदारी के खिलाफ आंदोलन छेड़ने वाले संगठन गंगा मुक्ति आंदोलन के प्रमुख नेता अनिल प्रकाश इस अभियान के संचालकों में शामिल है और इस सिलसिले में वे बिहार के बाहर के जन संगठनों से संपर्क कर इस आंदोलन को ताकत देने की कवायद में जुटे है। अब तक इस अभियान के लिए एक हजार सत्याग्रही तैयार हो चुके है। अनिल प्रकाश ने कहा कि बागमती नदी के तटबंध का निर्माण नहीं रुका तो सिर्फ मुजफ्फरपुर जिले के सौ से ज्यादा गांवों में जल प्रलय होगी और यह सिलसिला कई और जिलों तक जाएगा। बागमती नदी के तटबंध के खिलाफ पिछले एक महीने की दौरान जो सुगबुगाहट थी अब वह आंदोलन में तब्दील होती नजर अ रही है। खास बात यह है कि इस आंदोलन का नेतृत्व वैज्ञानिक और इंजीनियर भी संभाल रहे है। इस अभियान के समर्थन में अब एक लाख लोग हस्त्ताक्षर कर प्रधानमंत्री से दखल देने की अपील करने जा रहे है।

अनिल प्रकाश के मुताबिक लंबे अध्ययन और बैठको के बाद १५ मार्च को मुजफ्फरपुर के कटरा प्रखंड के गंगिया स्थित रामदयालू सिंह उच्च विद्यालय परिसर में बागमती पर बांध के निर्माण के विरोध में बिगुल फूंका गया। हजारों की संख्या में प्रभावित परिवारों के लोगों का जमघट लगा। गायघाट, कटरा, औराई के गाँव-गाँव से उमड़ पड़े बच्चों, बूढ़ों, नौजवानों, महिलायों और स्कूली छात्रों की आँखों में सरकार के विरूद्ध आक्रोश झलक रहा था। इससे पहले नदी विशेषज्ञ डॉ. डीके मिश्र, अनिल प्रकाश, अभियान के संयोजक महेश्वर प्रसाद यादव और मिसाइल और एअर क्राफ्ट वैज्ञानिक मानस बिहारी वर्मा ने इस मुद्दे के विभिन पहलुओं का अध्ययन किया और फिर आंदोलन की जमीन बनी। 

छह अप्रैल को मुजफ्फरपुर जिले के गायघाट स्थित कल्याणी गाँव की जनसभा से यह अब आंदोलन में तब्दील हो चुका है। अनिल प्रकाश ने आगे कहा -बागमती पर बांध गैर जरूरी व अवैज्ञानिक है। हमें नदी के साथ रहने की आदत है। बांध की कोइ जरूरत नहीं है। हमारी लडाई अब मुआवजे की नहीं, बल्कि बागमती बांध को रोकने की होगी। गाँव-गाँव में बैठक कर सत्याग्रहियों को भर्ती किया जायेगा। केंद्रीय कमिटी का गठन कर उसके निर्णय के अनुसार आगे की रणनीति तय की जाएगी। जबकि नदी व बाढ़ विशेषज्ञ डॉ. दिनेश कुमार मिश्र ने कहा -तटबंध बांध कर नदियों को नियंत्रित करने के बदले सरकार इसके पानी को निर्बाध रूप से निकासी की व्यवस्था करे। तटबंध पानी की निकासी को प्रभावित करता है. टूटने पर जान-माल की व्यापक क्षति होती है। सीतामढ़ी जिले में बागमती पर सबसे पहला तटबंध बनने से मसहा आलम गाँव प्रभावित हुआ था। उस गाँव के ४०० परिवारों को अब तक पुनर्वास का लाभ नहीं मिला है और रुन्नीसैदपुर से शिवनगर तक के १६०० परिवार पुनर्वास के लाभ के लिए भटक रहे हैं। दोनों तटबंधों के बीच गाद भरने की भी एक बड़ी समस्या है। रक्सिया में तटबंध के बीच एक १६ फीट ऊंचा टीला था. पिछले वर्ष मैंने देखा था, यह बालू में दबकर मात्र तीन फीट बचा है। बागमती नदी बार-बार अपनी धारा बदलती है। 

विशेषग्य ही नहीं गाँव के लोगभी इस सवाल पर काफी मुखर है। भागवतपुर गाँव के सूरत लाल यादवने कहा -बागमती को बांधा तो जमीन, घर-द्वार सब कुछ चला जाएगा। बाढ़ से नुकसान से ज्यादा लाभ होता है. दो-चार-दस दिन के कष्ट के बाद तो सब कुछ अच्छा ही होता है. जमीन उपजाऊ हो जाती है. पैदावार अधिक हो जाता है। बन्स्घत्ता के रौदी पंडित,के मुताबिक बांध बनने से बांध के बाहर की जमीन का दर दो लाख प्रति कट्ठा हो गया है, जबकि भीतर की जमीन १५ हजार रूपये प्रति कट्ठा हो गया है। जबकि गंगिया के रंजन कुमार सिंह ने कहा - अभी हमलोग जमींदार हैं. कल कंगाल हो जाएगे। बांध के भीतर मेरा १० एकड़ जमीन आ जाएगा और हम बर्बाद हो जाएगा। रंजीव का मानना है कि बांध विनाशकारी है। नदियों को खुला छोड़ देना चाहिए। नदियों की पेटी में जमे गाद को निकालने की व्यवस्था हो।

Link-  http://epaper.jansatta.com/08042012/index.html
           http://ambrish-kumar.blogspot.in/2012/04/blog-post_07.html