मंगलवार, 12 अगस्त 2014

नदियों की मौत पर शोकगीत भी नहीं


मानव सभ्यता का विकास नदियों के आसपास ही हुई है। नदियां हमारे लिए जीवनदायिनी स्वरूपा हैं। मनुष्य के अलावा अन्य प्राणियों, वनस्पतियों एवं इको सिस्टम के लिए भी जरूरी हैं। इसलिए तो नदियां प्राचीन काल से इतनी पूजनीय हैं। खासकर गंगा को मां का दर्जा देकर हम पूजते आ रहे हैं। पर, आज स्थिति उलट है। अविरल बहनेवाली नदियां रोकी जा रही हैं। नदी नाले में तब्दील होती जा रही है। निर्मल जल काला पानी में बदलता जा रहा है। नदियों की तलहटी में अपना संसार बसानेवाले जीव-जंतु भी मरते-मिटते जा रहे हैं। कहीं औद्योगिक कचरे से नदियों की सेहत बिगड़ रहा है, तो कहीं धार्मिक आस्था व मानवीय करतूतों से नदी मरती-मिटती जा रही हैं।
उार बिहार में आठ प्रमुख नदियां बहती हैं। ये हैं गंडक, बूढ़ी गंडक, बागमती, कोसी, कमला बलान, घाघरा, महानंदा, अधवारा समूह की नदियां। इन सभी नदियों का जल बिहार के बीचो-बीच से गुजरने वाली गंगा में समाहित हो जाती हैं। बूढ़ी गंडक को छोड़कर शेष सातों नदियां नेपाल से निकलती हैं। बूढ़ी गंडक का उद्गम पश्चिम चंपारण का एक चौर है। उार बिहार में इन बड़ी नदियों के अलावा दर्जनों छोटी-बड़ी नदियां बहती हैं, जो इस मैदानी इलाके की आर्थिक, सांस्कृतिक, सामाजिक समृद्घि में सहायक रही हैं। लेकिन दुर्भाग्यवश गत कई दशकों से ये नदियां बरसाती बन कर रह गयी हैं अथवा तिल-तिल कर मिटती जा रही हैं।
घाघरा नदी वैशाली जिले के लालगंज, भगवानपुर, हाजीपुर, देसरी, सहदेई प्रखंडों से गुजरती हुईं महनार प्रखंड में बाया नदी में मिलती है। आगे जाकर यह गंगा में मिल जाती है। यह नदी बिहार में कई जगह लुप्त दिखती है। पहले यह वैशाली जिले में सिंचाई व्यवस्था की रीढ़ थी। गंडक नदी से आवश्यक जल का वितरण होता था, जो इसके बहाव के पूरे क्षेत्र में हजारों एकड़ जमीन को सींचती थी। चंपारण, मुजफ्फरपुर, वैशाली, समस्तीपुर जिलों की जमीन की प्यास बुझाने वाली बाया नदी का हाल भी बुरा है। दशकों से उड़ाही न होने के कारण इसकी पेटी में गाद जमा हो गया है। गरमी में भी पानी सूख जाता है। किसानों के लिए वरदान रही बाया को पुनर्जीवित  करने के लिए वाया डैमेज योजना बनायी गयी, पर यह ठंडे बस्ते में पड़ी है। मुजफ्फरपुर जिले में कभी बलखाने वाली छोटी-छोटी नदियां माही, कदाने, नासी भी दम तोड़ चुकी हैं। कहीं-कहीं गड्ढे के रूप में नदी का निशान जरूर मिल जाता है।
चंपारण में भपसा, सोनभद्र, तमसा, सिकहरना, मसान, पंडई, ढोंगही, हरबोरा जैसी पहाड़ी नदियां बरसाती बनती जा रही हैं। प्रदूषण का बोझ ढोने को विवश हैं। सिल्टेशन की वजह से ये छिछला होती जा रही हैं। इनमें से कई नदियां खनन विभाग की उदासीनता व बालू माफियाओं के काले धंधे की शिकार हो रही हैं। इस इलाके में नदियों से अवैध ढंग से बालू की बेरोकटोक निकासी की जा रही है। सुतलाबे, सुमौसी, रघवा नदी भी अपनी पुरानी धारा के लिए तरस रही हैं। पूर्वी चंपारण के कल्याणपुर प्रखंड स्थित राजपुर मेला के पास सुमौसी नदी की तलहटी को मि?ी से घेर कर लोगों ने तालाब बना दिया है, जिसमें वे अस्थायी रूप से मत्स्यपालन करते हैं। केसरिया प्रखंड के फूलतकिया पुल के समीप यह नदी अतिक्रमित कर ली गयी है। झांझा नदी दिलावरपुर के पास पूरी तरह संकीर्ण हो गयी है। सीतामढ़ी में लखनदेई, लालबकेया, झीम नदी अब अविरल व निर्मल नहीं बहती हैं। लखनदेई (लक्ष्मणा) की धमनियों में सीतामढ़ी शहर का कचरा बह रहा है। इस नदी के किनारे जमीन अतिक्रमित कर लोग घर बना रहे हैं। रीगा चीनी मिल का कचरा मनुषमारा नदी को जहरीला बना रहा है। बीच-बीच में मनुषमारा, लखनदेई की उड़ाही के लिए आंदोलन भी होते रहते हैं, पर कुछ हुआ नहीं। बागमती के कार्यपालक अभियंता भीमशंकर राय ने बताया कि भारत-नेपाल सीमा के भारतीय इलाके में करीब 8 किलोमीटर में स्थानीय लोगों ने अतिक्रमण कर लखनदेई की पेट में घर बना लिया, जिस कारण उसकी धारा अवरूद्घ हो गयी है। ऐसे में नदी की उड़ाही करना मुश्किल हो रहा है। नदी के किनारे के गांवों में सिंचाई की समस्या उत्पन्न हो गयी है। जमुरा-झीम नदी की धारा मोड़ कर लखनदेई में मिलाने की योजना पर काम हो रहा है।
करहा, धौंस, जमुनी, बिग्छी आदि नदियां मिथिलांचल के किसानों, पशुपालकों के लिए अब उपयोगी नहीं रही। बिग्छी व जमुनी नेपाल स्थित सिगरेट व कागज की फैक्ट्रियों का रासायनिक अवशेष लेकर आती है और धौंस में मिला देती हैं। ये नदियां कालापानी की सजा भुगत रही हैं। इस नदी में स्नान करने का मतलब है चर्मरोग से ग्रसित हो जाना। कुछ साल पहले केंद्रीय जल आयोग की टीम आयी थी। टीम ने धौंस के पानी को अनुपयोगी बताया था। गत दो-तीन साल में अधवारा समूह की कई नदियों की धारा मर चुकी है। दरभंगा जिले में बहनेवाली करेह, बूढ़नद नदियों ने भी अपना प्राकृतिक प्रवाह खो दिया है। नदी विशेषज्ञ रंजीव कहते हैं कि विकास के अवैज्ञानिक मॉडल व जलवायु परिवर्तन के कारण नदियां मर रही हैं। हाल के दिनों में उार बिहार की नदियों में पानी की आवक कम हुई है। इसका कारण है कि गत एक दशक से हिमालय क्षेत्र में बारिश कम हुई है। बूढ़ी गंडक व बागमती नदी के पानी से बना प्रमुख प्राकृतिक झील कांवर झील भी सूख गया है। तालाब जैसा दिखता है। कोसी की सहायक नदियां तिलयुगा पर बांध बनाया गया है। जगह-जगह स्लूइस गेट लगाया गया। इस सिल्ट लोडेड नदी में स्लूइस गेट लगाने से उसकी धारा बदल गयी है। हमें नदियों के विज्ञान को समझना होगा। तभी विकास की रूपरेखा तय करनी होगी।
बागमती की बाई ओर सिपरी नदी कहलानेवाली धारा ‘फलकनी’ तथा ‘हिरम्मा’ गांवों के पास से अलग होकर दाहिनी धारा के समानांतर चलती हुई पूरे मुजफ्फरपुर जिले की पूर्वी सीमा तक बहती थी और दाहिने प्रवाह के साथ जिले की सीमा पर ‘हठा’ नामक गांव के पास मिलती थी, पर यह ‘सिपरी’ धारा भी अब प्राय: लुप्त हो चुकी है। 1970 में बागमती को इस धारा से बहाने का प्रयास किया गया, लेकिन सफलता नहीं मिली। सुलतानुपर भीम गांव के पास ही बागमती की एक प्राचीन ‘कोला’ नदी नामक उपधारा ‘सिपरी’ से मिलती थी। कोला नदी भी प्राय: लुप्त हो चुकी है।
उार बिहार की नदियों में सरयू के बाद पूर्व की ओर दूसरी बड़ी नदी गंडकी है, जिसे नारायणी भी कहते हैं। नेपाल के तराई क्षेत्र में इसे शालीग्राम भी कहा जाता है। यह नदी भी कहीं सिकुड़ गयी है, तो कहीं दूर चली गयी है। नारायणी के किनारे बसे गांव हुस्सेपुर परनी छपरा के युवा किसान पंकज सिंह बताते हैं कि पहले करीब डेढ़ किलामीटर चौड़ाई में नदी का पानी बहता था। अब तो यह नाले की तरह बह रही है। गाद भर गया है। कटाव के कारण हमारे घर के सामने यह नदी मुजफ्फरपुर से रूठ कर छपरा से बहने लगी है।
दरभंगा में एक संगोष्ठी में भाग लेने आये जलपुरुष राजेंद्र सिंह ने कहा कि सन् 1800 में ही ईस्ट इंडिया कंपनी के इंजीनियरों ने बिहार की नदियों के साथ अत्याचार प्रारंभ कर दिया था। इस इलाके के इको सिस्टम को समङो बिना ही पुल, पुलियों, कल्वटरें का निर्माण शुरू कर दिया गया। रेल की पटरियां बिछाने के लिए गलत तरीके से मि?ी की कटाई की गयी। इस कारण नदियों का नैसर्गिक प्रवाह प्रभावित हो गया। इस इलाके में पानी का कंटेंट तेजी से बदल रहा है, जो लोगों को बीमार भी बना रहा है। उन्होंने कहा कि पूरा इको सिस्टम जल पर आधारित होती है और एक समृद्घ इको सिस्टम में ही समृद्घ इकोनॉमी विकसित हो सकती है। जल संरक्षण की नीति बनानेवाले केंद्र व राज्य सरकार के अधिकारी यूपी व उारांचल की नदियों के हिसाब से नीतियां बनाते हैं, जो बिहार में सफल नहीं हो पाते हैं। जल संसाधन विभाग की कवायद भी बांध, बाढ़ व राहत कार्यक्रम तक सिमटी रहती हैं। नदियों के विज्ञान, उसकी सेहत व उसके पानी में पलने वाले जीव-जंतुओं के जीवन की चिंता न सरकार को है और न विभाग को। लिहाजा, जरूरत है कि लोग जीवनदायिनी नदियों को मरने से बचायें।
--- संतोष सारंग

सिमट रहा झील का आंचल, पक्षी का कलरव भी मद्धिम

—– संतोष सारंग
‘किये न पिअइछी जलवा हे पंडित ज्ञानी
नदिया किनार में गईया मर गइल
त मछली खोदी-खोदी खाई
किये न पिअइछी जलवा हे पंडित ज्ञानी’’

गांव-गंवई के ये बोल जब इन महिलाओं के कंठ से उतरकर पास के चौरों और नदियों के जल से तरंगित होती हैं तो झील का विहार करने वालों का यहां आना सार्थक हो जाता है। नदी, जल, मछली, पक्षी, चौर, झील जैसे शब्द भी यहां के लोक गीतों में पिरोया हुआ है। हम बात कर रहे हैं मिथिलांचल के मनोहारी चौरों-झीलों के मनोरम दृश्यों की, प्रवासी पक्षियों के सुंदर नजारों की, आसपास कलकल बहती नदियों की और इस बीच धिसट-धिसटकर सरकती जिंदगियों की।
यह है ‘कुशेश्वरस्थान पक्षी अभयारण्य’ । यह कई छोटे-छोटे चौरों की एक ऐसी ऋंखला है, जिसे लोग नरांच झील के नाम से भी जानते हैं। यह पक्षी विहार के लिए सर्वोत्तम जगह है। यहां गर्मी की विदाई के साथ मेहमान पक्षियों का आगमन शुरू हो जाता है। खासकर, साइबेरियाई पक्षियों के लिए दरभंगा जिले के कुशेश्वरस्थान प्रखंड का यह इलाका ससुराल से कम नहीं है। बिहार के अन्य प्रमुख झीलों की तरह यहां से विदेशी पक्षियों की रूसवाई पूरी तरह नहीं हुई है। शांत व शीतल जल में हजारों प्रवासी पक्षियों का कतारबदद्घ होकर भोजन व प्रजनन में मगर रहने और तरह-तरह की अदाओं से फिजाओं को गुलजार करने का दृश्य भला किन आंखों को नहीं भायेगा?
दरभंगा मुख्यालय से तकरीबन 45 किलोमीटर का सफर तय कर जब आप बेरि चौक पहुंचेंगे तो ‘कुशेश्वरस्थान पक्षी अभयारण्य’ का इलाका शुरू हो जाता है। निर्माणाधीन दरभंगा-कुशेश्वरस्थान नई रेल लाइन पार करते ही घुमावदार सोलिंग सड़क से होते हुए आगे बढ़ते ही दिखता है ऊबर-खाबड़ जमीन। कहीं जल से भरा तो कहीं सूखे खेत। दूर तक फैले जलकुंभी तो कहीं गेहूं के छोटे-छोटे, हरे-हरे पौधे। किसान मशगुल हैं रबी के फसल को सींचने में, तो बच्चे मशगुल हैं खेलने में। कहीं कुदाल चल रहा है तो कहीं क्रिक्रेट का बल्ला। झील का यह सूखा क्षेा भी कभी पानी से लबालब भरा रहता था, लेकिन पिछले कई सालों से यह झील रूठ गया लगता है। यहां खड़े पीपल के पेड़ गवाह हैं कि कभी इसका तना भी पानी में डूबा रहता था। आखिर इस झील और इसके प्रियतम निर्मल जल को क्या हो गया है? यहां आसपास रहने वाले लोगों को भी इसकी वजह मालूम नहीं।
5-6 चौर मिलकर यह विस्तृत क्षेा नरांच झील कहलाता है। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, 6700 हेक्टेयर क्षेाफल में फैले ये चौर और 1400 हेक्टेयर लो लैंड का यह वृहत क्षेाफल वाला यह इलाका आज भले सिमट गया हो, लेकिन प्रवासी पक्षियों का अतिथि सत्कार कम नहीं हुआ है।
सहरसा जिले के मनगर गांव से सटा महरैला चौर, बिसरिया पंचायत से होकर बहती कमला नदी, विशुनपुर गांव का सुल्तानपुर चौर और कोसी नदी का स्नेह आज भी इस झील को जिंदा रखे हुए है। नाव पर चढ़कर जलकुंभी निकालती ये महिलाएं, घोंघा-सितुआ छानते बच्चे, केकड़ा पकड़ भोजन का जुगाड़ करते लोग और तितली नाम का यह जलीय पौधा। क्या यह सब कम है प्रवासी पक्षियों की मेहमाननवाजी के लिये !
कुशेश्वरस्थान पक्षी अभयारण्य। लगभग 15 दुर्लभ किस्म के प्रवासी पक्षियों का तीर्थ स्थल। लालसर, दिधौंच, मेल, नक्टा, गैरी, गगन, सिल्ली, अधनी, हरियाल, चाहा, करन, रत्वा, गैबर, हसुआ दाग जैसे मेहमान पक्षियों से गुलजार रहने वाला प्रकृति का रमणीक स्थान। जब यहां सैकड़ों-हजारों किलोमीटर दूर नेपाल, तिब्बत, भूटान, अफगानिस्तान, चीन, पाकिस्तान, मंगोलिया, साइबेरिया आदि देशों से ये रंग-बिरंगे पक्षी नवंबर में पहुंचते हैं तो पक्षी व प्रकृति प्रेमियों का मन खिल उठता है। चीड़ीमारों की भी बांछें खिल जाती हैं। रात के अंधेरे में ये चीड़ीमार इनका शिकार करने से नहीं चूकते हैं। हालांकि, कई बार ये पकड़े जाते हैं। झील के आसपास रहने वाले लोग बताते हैं कि अब प्रवासी पक्षियों का आना कम हो गया है । चीड़ीमार पानी में नशीली दवा डालकर पक्षी को बेहोश कर पकड़ लेते हैं। और इसे मारकर बड़े चाव से इसके मांस को खा जाते हैं। यहां के कई लोग इन पक्षियों का शिकार करते पकड़े गये और हवालात पहुंच गये। बहरहाल, पक्षियों का शिकार तो कमा है, लेकिन पानी के सिमटने से झील का आंचल छोटा हो गया है। इसकी पेटी में जहां कभी पानी भरा रहता था, वहां आज रबी फसल उगाये जा रहे हैं। जलीय जीवों, पौधों और मेहमान पक्षियों के घर-आंगन में गेहूं व सरसों के बीज प्रस्फुटित हो रहे हैं। गरमा धान की रोपनी के लिये बिचरा जमाया जा रहा है। पंपिंग सेट और ट्रैक्टर की आहट से मेहमान पक्षी आहत हैं। यहां चल रहे दो-दो पंपिंग सेट यह इंगित करने के लिये काफी हैं कि किस तरह झील और पक्षियों की पीड़ा से अनभिज्ञ किसान शेष बचे पानी को भी सोख लेना चाहते हैं। लिहाजा, इसमें इनका क्या दोषै? इन भोले-भाले किसानों को क्या मालूम कि प्रकृति के लिये पक्षी व जीव-जंतु कितना महत्वपूर्ण है। पर्यावरण के सेहत से इनका क्या सरोकार ? झोपड़ी में अपनी जिंद्गी की रात गुजारने वाले साधनहीन आबादी को पक्षी अभयारण्य की रक्षा का मां किसी ने दिया भी तो नहीं? हालांकि झील व प्रवासी पक्षियों के अस्तित्व को बचाने व लोगों को जागरूक करने के उद्देश्य से कभी यहां ‘रेड कारपेट डे’ मनाया जाता था। बॉटनी के एक प्रोफेसर डॉ एसके वर्मा की पहल पर ये कार्यक्रम दिसंबर में आयोजित होते थे, लेकिन यह सिलसिला कुछ साल चलकर थम गया। उद्घारक की बाट जोहता यह झील धीरे-धीरे वीरानी व उदासी की चादर ओढे चला जा रहा है। फिलवक्त किसी पर्यावरण व पक्षी प्रेमियों की आस में एक बार फिर ये पक्षी दूर-देश से यहां विचरण को आये हैं तो उम्मीद की एक किरण जगती है।
ज्यादा दिन नहीं गुजरे, जब ठंड के मौसम में हजारों प्रवासी पक्षियों का झूंड मन मोह लेता था। पक्षियों के कलरव से लोगों की नींद गायब हो जाती थी। मगर अब वो दिन कहां रहा। प्रकृति का गुस्सा, कोसी-कमला का बदलता मिजाज और चौरों में भर रहे गाद से झील बेहाल है। इसका असर पक्षियों के निवाले पर भी पड़ रहा है। ये फटी धरती और मृत पड़े घोंघा-सितुआ के ये अवशेष इस झील का दर्द बयां करने के लिये काफी हैं।
बताते चलें कि कुशेश्वरस्थान प्रखंड के जलजमाव वाले चौदह गांवों को नैसर्गिक, भूगर्भीय विशेषता और खासकर प्रवासी पक्षियों के लिये अनुकूल वातावरण के लिये इस झील को वाइल्ड लाइफ प्रोटेक्शन एक्ट 1972 (1991 में संशोधित) के तहत ‘कुशेश्वरस्थान पक्षी अभयारण्य’ घोषित किया गया। मिथिलांचल का यह इलाका पर्यटन के लिये भी खास स्थान रखता है। इस खासियत के चलते इस झील को खुशियों के दिन लौटाने होंगे। दुर्लभ किस्म के प्रवासी पक्षियों के मिटते अस्तित्व को बचाना होगा। प्राकृतिक जलस्त्रोतों, यथा-झील, चौर, नदी, नाला, बाबड़ी, पइनों को पुनजिर्वीत करना होगा। अन्यथा, हम अपने सहचर से बेबफाई के लिए दोषी होंगे। और तब हमारी जुबान भी इस गीत को शब्द देने में लड़खड़ायेगी कि
‘किये न पिअइछी जलवा हे पंडित ज्ञानी़़़़़

गंगा को निर्मल रहने दो, गंगा को अविरल बहने दो

  • अनिल प्रकाश

केंद्र की नई सरकार ने गंगा नदी से जुड़ी समस्यािओं पर काम करने का फैसला किया है। तीन.तीन मंत्रालय इस पर सक्रिय हुए हैं। एक बार पहले भी राजीव गांधी के प्रधानमंत्रित्वस काल में गंगा की सफाई की योजना पर बड़े शोर.शराबे के साथ काम शुरू हुआ था। गंगा ऐक्शोन प्लाबन बना। मनमोहन सिंह सरकार ने तो गंगा को राष्ट्री य नदी ही घोषित कर दिया। मनो पहले यह राष्ट्रींय नदी नहीं रही हो। अब तक लगभग बीस हजार करोड़ रुपए खर्च करने के बावजूद गंगा का पानी जगह.जगह पर प्रदूषित और जहरीला बना हुआ है। गंगा का सवाल ऊपर से जितना आसान दिखता हैए वैसा है नहीं। यह बहुत जटिल प्रश्न  है। गहराई में विचार करने पर पता चलता है कि गंगाको निर्मल रखने के लिए देश की कृषिए उद्योगए शहरी विकास तथा पर्यावरण संबंधी नीतियों में मूलभूत परिवर्तन लाने की जरूरत पड़ेगी। यह बहुत आसान नहीं होगा। केवल रिवर फ्रंट बनाकर उसकी सजावट करने का मामला नहीं है।
दरअसलए ष्गंगा को साफ रखनेष् या ष्क्ली न गंगाष् की अवधारणा ही सही नहीं है। सही नारा या अवधारणा यह होनी चाहिए कि ष्गंगा को गंदा मत करोष्। थोड़ी बहुत शुद्धिकरण तो गंगा खुद ही करती है। उसके अंदर स्वसयं शुद्धिकरण की क्षमता है। जहां गांगा का पानी साफ हो वहां से जल लेकर यदि किसी बोतल में रखें तो यह सालों साल सड़ता नहीं है। वैज्ञानिकों ने हैजे के जीवाणुओं को इस पानी में डालकर देखा तो पाया कि चार घंटे के बाद हैजे के जीवाणु नष्टा हो गए थे। अब उस गंगा को कोई साफ करने की बात करे तो इसे नासमझी ही माना जाएगा। अगर कोई यह समझता है कि लोगों के नहाने या कुल्लाज करने से या भैसों के नहाने या गोबर करने से गंगा या अन्या कोई नदी प्रदूषित होती है तो यह ठीक उसी प्रकार हंसने की बात होगी जैसे कोई शहरी आदमी जौ के पौधे को गेहूं का पौधा समझ बैठे या बाजरे के पौधे को मक्काप या गन्नेप का पौधा समझ बैठे। गंगा के संबंध में मोदी सरकार के विभिन्न  मंत्रालयों के अफसर और मंत्रिगण जो घोषणाएं कर रहे हैंए उससे तो ऐसा ही लग रहा है।
कुछ साल पहले आगरा में यमुना नदी में तैर कर नहा रही लगभग 35 भैंसों को पुलिस वाले पकड़कर थाने ले आए थे। और भैंस वालों ने कई दिन बाद बड़ी मुश्किल से भैंसों को थाने से छुड़ाया था। यमुना में जहरीला कचरा बहाने वाले फैक्ट्रीो के मालिक या शहरी मल.जल बहाने वाले म्‍युनिसिपल कॉरपोरेशन के अधिकारी पुलिस के निशाने पर कभी नहीं रहे।
गंगा तथा अन्यह नदियों के प्रदूषित और जहरीला होने का सबसे बड़ा कारण है कल.कारखानों के जहरीले रसायनों का नदी में बिना रोकटोक के गिराया जाना। उद्योगपतियों के प्रतिनिधि बताते हैं कि गंगा के प्रदूषण में इंडस्ट्री यल एफ्लूएंट सिर्फ आठ प्रतिशत जिम्मेबदार है। यह आंकड़ा विश्वाास करने योग्यर नहीं है। दूसरे बात यह कि जब कल कारखानों या थर्मल पावर स्टेेशनों का गर्म पानी तथा जहरीला रसायन या काला या रंगीन एफ्लूएंट नदी में जाता हैए तो नदी के पानी को जहरीला बनाने के साथ.साथ नदी के स्वीयं शुद्धिकरण की क्षमता को नष्टल कर देता है। नदी में बहुत से सूक्ष्मव वनस्प्ति होते हैं जो सूरज की रोशनी में प्रकाश संश्लेनषण की क्रिया द्वारा अपना भोजन बनाते हैंए गंदगी को सोखकर ऑक्सी जन मुक्तअ करते हैं।
इसी प्रकार बहुतेरे जीव जन्तुक भी सफाई करते रहते हैं। लेकिन उद्योगों के प्रदूषण के कारण गंगा में तथा अन्यत नदियों में भी जगह.जगह डेड जोन बन गए हैं। कहीं आधा किलोमीटरए कहीं एक किलोमीटर तो कही दो किलोमीटर के डेड जोन मिलते हैं। यहां से गुजरने वाला कोई जीव.जन्तुे या वनस्पंति जीवित नहीं बचता। क्याज उद्योगोंए बिजलीघरों का गर्म पानी जहरीला कचरे को नदी में बहाने पर सख्तीव से रोक लगेगीघ् क्याक प्रदूषण के लिए जिम्मे‍दार उद्योगों के मालिकोंए बिजलीघरों के बड़े अधिकारियों को जेल भेजने के लिए सख्तं कानून बनेंगे और उसे मुस्तैरदी से लागू किया जाएगा। अगर ऐसा नहीं हुआ तो गंगा निर्मल कैसे रहेगीघ्
गंगा के तथा अन्यम नदियों के प्रदूषण का बड़ा कारण है खेती में रसायनिक खादों और जहरीले कीटनाशकों का प्रयोग। ये रसायन बरसात के समय बहकर नदी में पहुंच जाते हैं तथा जीव जन्तुबओं तथा वनस्पसतियों को नष्टच करके नदी की पारिस्थंतिकी को बिगाड़ देते हैं। इसलिए नदियों को प्रदूषण मुक्तत रखने के लिए इन रासायनिक खादों तथा कीटनाशकों पर दी जाने वाली भारी सब्सिडी को बंद करके पूरी राशि जैविक खाद तथा जैविक कीटनाशकों का प्रयोग करने वाले किसानों को देनी पड़ेगी। और अंततरू रासायनिक उर्वरकों एवं कीटनाशकों पर पूर्ण रोक लगानी पड़ेगी।
जैविक खेती में उत्पाोदकता का कम नहीं होती हैए बल्कि अनाजए सब्जीक तथा फल भी जहर मुक्त  और स्वालस्य्को वर्द्धक होते हैं। इसमें सिंचाई के लिए पानी की खपत भी बहुत घटती है और खेती की लागत घटने से मुनाफा भी बढ़ाता है। अगर इस पर कड़ा फैसला लिया गया तभी नदियों को साफ रखा जा सकेगा।
शहरों के सीवर तथा नालों से बहने वाले एफ्लूएंट को ट्रीट करके साफ पानी नदी में गिराने के लिए बहुत बातें हो चुकी हैं। केवल गंगा के बगल के क्लांसदृ1 के 36 शहरों में प्रतिदिन 2ए601ण्3 एमएलडी गंदा पानी निकलता हैए जिसका मात्र 46 प्रतिशत ही साफ करके नदी में गिराया जाता है।
क्लायसदृ2 के 14 शहरों से प्रतिदिन 122 एमएलडी एफ्लूएंट निकलता है। जिसका मात्र 13 प्रतिशत ही साफ करके गिराया जाता है। गंगा के किनारे के कस्बों  तथा छोटे शहरों के प्रदूषण की तो सरकार चर्चा भी नहीं करती। शहरी मलजल तथा कचरा ऐसी चीजें हैंए जिसे सोना बनाया जा सकता है। देश के कुछ शहरों में इस कचरे से खाद बनाई जाती है और पानी को साफ करके खेतों की सिंचाई के काम में लगाया जाता है। ऐसा प्रयोग गंगा तथा अन्यं नदियों के सभी शहरों.कस्बोंज में किया जा सकता है। अब तक यह मामला टलता रहा है। इसमें भी मुस्तै दी की सख्तीह से जरूरत है। प्रधानमंत्री के संसदीय क्षेत्र वाराणसी में वरुणा नदी गंगा में मिलती है। वरुणा शहर की सारी गंदगी गंगा में डालती है। क्यां प्रधानमंत्री का ध्यागन इस पर गया हैघ् अगर न देखा हो तो जाकर देख लें।
गंगा या अन्य  नदियों पर नीति बनाने और उसके क्रियान्व‍यन से पहले उन करोड़ों करोड़ लोगों की ओर नजर डालना जरूरी हैए जिनकी जीविका और जिनका सामाजिक सांस्कृओतिक जीवन इनसे जुड़ा है। गंगा पर विचार के साथ.साथ गंगा में मिलने वाली सहायक नदियों के बारे में विचार करना जरूरी है। आठ राज्योंं की नदियों का पानी प्रत्य क्ष या अप्रत्यकक्ष रूप से गंगा में मिलता है। इन नदियों में होने वाले प्रदूषण का असर भी गंगा पर पड़ता है। गंगा पर शुरू में ही टिहरी में तथा अन्यक स्था नों पर बांध और बराज बना दिए गए। इससे गंगा के जल प्रवाह में भारी कमी आयी है। गंगा के प्रदूषण का यह भी बहुत बड़ा कारण है। बांधों और बराजों के कारण नदी की स्वायभाविक उड़ाही ;डी.सिल्टिंगद्ध की प्रक्रिया रुकी है। गाद का जमाव बढ़ने से नदी की गहराई घटती गई है और बाढ़ तथा कटाव का प्रकोप भयावह होता गया है। यह नहीं भूलना चाहिए कि गंगा में आने वाले पानी का लगभग आधा नेपाल के हिमालय क्षेत्र की नदियों से आता है। हिमायल में हर साल लगभग एक हजार भूकंप के झटके रिकॉर्ड किये जाते हैं। इन झटकों के कारण हिमालय में भूस्खेलन होता रहता है। बरसात में यह मिट्टी बहकर नदियों के माध्यसम से खेतोंए मैदानों तथा गंगा में आता है। हर साल खरबों टन मिट्टी आती है। इसी मिट्टी से गंगा के मैदानों का निर्माण हुआ है। यह प्रक्रिया जारी है और आगे भी जारी रहेगी।
1971 में पश्चिम बंगाल में फरक्काह बराज बना और 1975 में उसकी कमीशनिंग हुई। जब यह बराज नहीं था तो हर साल बरसात के तेज पानी की धारा के कारण 150 से 200 फीट गहराई तक प्राकृतिक रूप से गंगा नदी की उड़ाही हो जाती थी। जब से फरक्काट बराज बना सिल्टग की उड़ाही की यह प्रक्रिया रुक गई और नदी का तल ऊपर उठता गया। सहायक नदियां भी बुरी तरह प्रभावित हुईं। जब नदी की गहराई कम होती है तो पानी फैलता है और कटाव तथा बाढ़ के प्रकोप की तीव्रता को बढ़ाता जाता है। मालदह.फरक्काो से लेकर बिहार के छपरा तक यहां तक कि बनारस तक भी इसका दुष्प्र्भाव दिखता है।
फरक्काह बराज के कारण समुद्र से मछलियों की आवाजाही रुक गइ। फीश लैडर बालू.मिट्टी से भर गया। झींगा जैसी मछलियों की ब्रीडिंग समुद्र के खारे पानी में होती हैए जबकि हिलसा जैसी मछलियों का प्रजनन ऋषिकेष के ठंडे मीठे पानी में होता है। अब यह सब प्रक्रिया रुक गई तथा गंगा तथा उसकी सहायक नदियों में 80 प्रतिशत मछलियां समाप्ता हो गई। इससे भोजन में प्रोटीन की कमी हो गई। पश्चिम बंगालए बिहार और उत्तनर प्रदेश में अब रोजाना आंध्र प्रदेश से मछली आती है। इसके साथ ही मछली से जीविका चलाकर भरपेट भोजन पाने वाले लाखों.लाख मछुआरों के रोजगार समाप्तट हो गए।
इसलिए जब गडकरी साहब ने गंगा में हर 100 किलोमीटर की दूरी पर बराज बनाने की बात शुरू कीए तब गंगा पर जीने वाले करोड़ों लोगों में घबराहट फैलने लगी है। गंगा की उड़ाही की बात तो ठीक हैए लेकिन बराजों की श्रृंखला खड़ी करके गंगा की प्राकृतिक उड़ाही की प्रक्रिया को बाधित करना सूझबूझ की बात नहीं है। इस पर सरकार को पुनर्विचार करना चाहिए। नहीं तो सरकार को जनता के भारी विरोध का सामना करना पड़ेगा और लेने के देने पड़ जाएंगे। आज से 32 साल पहले 1982 में कहलगांव ;जिला दृ भागलपुर क्ष्बिहारद्वद्ध से गंगा मुक्ति आंदोलन की शुरुआत हुई थी। जन प्रतिरोध के कारण 1990 आते.आते गंगा में चल रही जमींदारी और पूरे बिहार के 500 किलोमीटर गंगा क्षेत्र तथा बिहार की सभी नदियों में मछुआरों के लिए मछली पकड़ना कर मुक्त  कर दिया गया था। गंगा मुक्ति आंदोलन ने ऊपर वर्णित सवालों को लगातार उठाया और लाखों लाख लोग उसमें सक्रिय हुए थे। आज भी वह आग बुझी नहीं है। आग अंदर से सुलग रही है। गंगा के नाम पर गलत नीतियां अपनाई गई तो बंगालए बिहार और उत्तपर प्रदेश में यह ठंडी आग फिर से लपट बन सकती है।