लगता है कि तटबंध निर्माण की सजा भुगत रहा बिहार अपनी गलतियों से कुछ सीखने को तैयार नहीं है। ताजा परिदृश्य पूर्णतया विरोधाभासी है। नीतीश सरकार ने एक ओर आहर-पाइन की परंपरागत सिंचाई प्रणाली के पुनरुद्धार का एक अच्छा काम हाथ में लिया है, तो दूसरी ओर नदी जोड़ को आगे बढ़ाने का निर्णय कर वह बिगाड़ की राह पर भी चल निकली है। प्रदेश के जलसंसाधन मंत्री का दावा है कि नदी जोड़ की इन परियोजनाओं के जरिए नदी के पानी में अचानक बहाव बढ़ जाने पर सामान्य से अधिक पानी को दूसरी नदी में भेजकर समस्या से निजात पाया जा सकेगा। वह भूल गए है कि तटबंधों को बनाते वक्त भी इंजीनियरों ने हमारे राजनेताओं को इसी तरह आश्वस्त किया था। उसका खामियाजा बिहार आज तक भुगत रहा है। जैसे-जैसे तटबंधों की लंबाई बढ़ी, वैसे-वैसे बिहार में बाढ़ का क्षेत्र और उससे होने वाली बर्बादी भी बढ़ती गई। बर्बादी के इस दौर ने बिहार में सिंचाई की शानदार आहर-पइन प्रणाली का मजबूत तंत्र भी ध्वस्त किया। परिणाम हम सभी ने देखे। आगे चलकर जलजमाव, रिसाव, बंजर भूमि, कर्ज, मंहगी सिंचाई और घटती उत्पादकता के रूप में नदी जोड़ का खामियाजा भी बिहार भुगतेगा।
आगे बढ़ाये चार प्रस्ताव
उल्लेखनीय है कि राज्य ने निर्णय ले लिया है। राज्य के जलसंसाधन विभाग में इसके लिए विशेषज्ञों की एक टीम भी गठित कर दी गई है। टीम ने प्रथम चरण में 790 करोड़ की लागत के चार परियोजनाओं पर काम करने का प्रस्ताव किया है। राज्य के जलसंसाधन मंत्री ने होशियारी दिखाते हुए राष्ट्रपति चुनाव से पहले केंद्रीय जलसंसाधन मंत्री से इन पर बात भी कर ली है। फिलहाल इन प्रस्तावों को लेकर बिहार सरकार को योजना आयोग की मंजूरी का इंतजार है। इन चार प्रस्तावों के नाम, जल स्थानान्तरण क्षमता और लागत निम्नानुसार है:
1. बूढ़ी गंडक-नून-बाया-गंगा लिंक
300 क्यूमेक और 407.33 करोड़।
2. कोहरा-चंद्रावत लिंक
( बूढ़ी गंडक का पानी गंडक में)
80 क्यूमेक और 168.86 करोड़।
3. बागमती-बूढ़ी गंडक लिंक
( बागमती-बूढ़ी गंडक का पानी बेलवाधार में)
500 क्यूमेक और 125.96 करोड़।
4. कोसी-गंगा लिंक
88.93 करोड़
सेम बढ़ेगा-उत्पादकता घटेगी
समझने की जरूरत है कि नदी जोड़ के नुकसान क्या हैं? बात एकदम सीधी सी है; पर न मालूम क्यों हमारे कर्णधारों को समझ नहीं आ रही। हम सभी जानते हैं कि नदी जोड़ परियोजना नहरों पर आधारित है। बिहार का गंगा घाटी क्षेत्र का ढाल सपाट है। नहरें वर्षा के प्रवाह के मार्ग में रोड़ अटकायेंगी ही। इससे बड़े पैमाने पर सेम की समस्या सामने आयेगी। सेम यानी जलजमाव। सेम से जमीनें बंजर होंगी और उत्पादकता घटेगी। इसके अलावा नहरों में स्रोत से खेत तक पहुंचने में 50 से 70 फीसदी तक होने वाले रिसाव के आंकड़े पानी की बर्बादी बढ़ायेंगे। समस्या को बद से बदतर बनायेंगे। गंगा घाटी की बलुआही मिट्टी इस काम को और आसान बनायेगी। बिहार के नदी व नहरी क्षेत्र के अनुभवों से इसे सहज ही समझा जा सकता है।
नहर टूटने के खतरे
बिहार में नहरों और तटबंधों के टूटने की घटनायें आम हैं। तिरहुत, सारण, सोन, पूर्वी कोसी। बरसात में बाढ़ आयेगी ही और हर साल नहरें टूटेंगी ही। नहरों का जितना जाल फैलेगा, समस्या उतनी विकराल होगी।
बहुत मंहगा पड़ेगा नदी जोड़
बाढ़ में अतिरिक्त पानी को लेकर समझने की बात यह है कि उत्तर बिहार से होकर जितना पानी गुजरता है, उसमें मात्र 19 प्रतिशत ही स्थानीय बारिश का परिणाम होता है। शेष 81 प्रतिशत भारत के दूसरे राज्यों तथा नेपाल से आता है। गंगा में बहने वाले कुल पानी का मात्र तीन प्रतिशत ही बिहार में बरसी बारिश का होता है। अतः ब्रह्मपुत्र-गंगा घाटी क्षेत्र में नदी जोड़ का मतलब है नेपाल में बांध। उसके बगैर पानी की मात्रा नियंत्रित नहीं की जा सकती। बांधों को लेकर दूसरे सौ बवाल है, सो अलग; इधर नेपाल ने प्रस्तावित बांधों से होने वाली सिंचाई से धनवसूली की मंशा पहले ही जाहिर कर दी है। लालू यादव ने मई, 2003 में कहा ही था- “पानी हमरा पेट्रोल है।” इस नजरिए से बहुत मंहगी पड़ेगी नदी जोड़ के रास्ते आई सिंचाई। यूं भी नदी जोड़ की प्रस्तावित लागत आगे और बढ़ने ही वाली है। इसके क्रियान्वयन में निजी कंपनियों का प्रवेश भी होगा ही। वे आये दिन किसानों की जेब खाली कराने से कभी नहीं चूकेंगी। सस्ता नहीं सौदा नदी जोड़ का।
बाढ़ के साथ जीने का उपायों की जरूरत
बिहार की बाढ़ को लेकर चर्चा कोई पहली बार नहीं है। यह कई बार कहा जा चुका है कि बाढ़ को पूरी तरह नियंत्रित करना न संभव है और न किया जाना चाहिए। बाढ़ के अपने फायदे हैं और अपने नुकसान। जरूरत है, तो सिर्फ बाढ़ प्रवाह की तीव्रता को कम करने वाले उपायों की। नदियों में बढ़ती गाद को नियंत्रित करने की। तटबंधो पर पुनर्विचार करने की। बिहार की बाढ़ का ज्यादातर पानी नेपाल की देन है। मध्यमार्गी होकर उसका रास्ता नेपाल से बात करके ही निकाला जा सकता है। लेकिन हमारी नदियों के जलग्रहण क्षेत्र में जलसंचयन ढांचे व सघन वनों की समृद्धि तथा जलप्रवाह मार्ग को बाधामुक्त करने जैसे उपायों से कम से कम वर्षाजल के जरिए आने वाले अतिरिक्त जल को धरती के पेट में बैठाया ही जा सकता है।
साथ ही जरूरत है कि बाढ़ क्षेत्रों में ऐसे उपाय करने की, ताकि लोग बाढ़ के साथ जी सकें। बाढ़ क्षेत्रों के लिए मार्च अंत में बोकर बारिश आते-आते काट ली जाने वाली धान की किस्में उपलब्ध हैं। खरीफ फसलों पर और काम करने की जरूरत है। बाढ़ क्षेत्रों में रबी के भी अच्छे प्रयोग हुए हैं। उन्हें लोगों तक पहुंचाने के लिए वित्तीय प्रावधान, ईमानदारी व इच्छाशक्ति चाहिए। बाढ़रोधी घर, पेयजल के लिए ऊंचे हैंडपम्प, शौच-स्वच्छता का समुचित प्रबंध तथा पशुओं के लिए चारा-औषधियां। छोटे बच्चों के इलाज का खास इंतजाम व एहतियात की। जरूरत है कि बाढ़ के समय के साथ-साथ हम अपने कामकाज के वार्षिक कैलेंडर को बदलें। डाकघर-दवाखाना-बैंक-एटीएम-बाजार आदि जैसी रोजमर्रा की जरूरतों की मोबाइल व्यवस्था करें। सुंदरवन में यूनाइटेड बैंक नौका शाखा के जरिए अपनी सेवायें देता है।
आवश्यकता अविष्कार की जननी होती है। सोच बदले, तो दिशा बदले। बिहार में यदि सचमुच सुशासन है, तो वह इसी का परिणाम है। जरूरत है बिहार के इंजीनियर मुख्यमंत्री को बिहार की बाढ़ पर ठेकेदार प्रस्तावित परियोजनाओं की सोच से उबरने की। क्या वह उबरेंगे? फिलहाल प्रस्तावित चार परियोजनाओं का संकेत ठीक इसके विपरीत है। आप क्या सोचते हैं? अपनी आवाज बिहार सरकार तक पहुंचायें। हमे इंतजार रहेगा। हो सकता है कि सरकार चेत जाये तथा बिहार एक और नुकसानदेह परियोजना का खामियाजा भुगतने से बच जाये।
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